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दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन *१७३ *
तुलना कीजिए
"धिरत्थु तं विसं वन्तं, यमहं जीवितकारणा। वन्तं पञ्चावमिस्सामि, मतम्मे जीविता वरं॥"
-विसवन्त जातक ६९, प्रथम खण्ड, पृष्ठ ४०४ धिक्कार है उस जीवन को, जिस जीवन की रक्षा के लिए एक बार उगलकर मैं फिर निगलूँ। ऐसे जीवन से मरना अच्छा है।
दशवैकालिक के तीसरे अध्ययन की दूसरी और तीसरी गाथा निम्नानुसार
"उद्देसियं कीयगडं, नियागमभिहडाणि य। राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीयणे॥ सन्निही गिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिच्छए। संबाहणा दंतपहोयणा य, संपुच्छणा देहपलोयणा य॥"
-दशवैकालिक ३/२-३ निर्ग्रन्थ के निमित्त बनाया गया, खरीदा गया, आदरपूर्वक निमन्त्रित कर दिया जाने वाला, निर्ग्रन्थ के निमित्त दूर से सम्मुख लाया हुआ भोजन, रात्रि-भोजन, स्नान, गंध द्रव्य का विलेपन, माला पहनना, पंखा झलना, खाद्य वस्तु का संग्रह करना, रात वासी रखना, गृहस्थ के पात्र में भोजन करना, मूर्धाभिषिक्त राजा के घर से भिक्षा ग्रहण करना, अंगमर्दन करना, दाँत पखारना, गृहस्थ की कुशल पूछना, दर्पण निहारना ये कार्य निर्ग्रन्थ श्रमण के लिए वर्ण्य हैं। __उपरोक्त गाथा की तुलना श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध के अध्याय १८ के श्लोक ३ से कर सकते हैं
"केश-रोम-नख-श्मश्रु-मलानि बिभृयादतः।
न धावेदप्सु मजेत त्रिकालं स्थण्डिलेशयः॥" -गीता ११/१८/३ केश, रोएँ, नख और मूंछ-दाढ़ी रूप शरीर के मल को हटावे नहीं। दातुन न करे। जल में घुसकर त्रिकाल स्नान न करे और धरती पर ही पड़ा रहे। यह विधान वानप्रस्थों के लिए है।
इसी प्रकार दशवैकालिक के तीसरे अध्ययन की नवम् गाथा की तुलना भागवत के सातवें स्कन्ध के बारहवें अध्याय के बारहवें श्लोक से कीजिए
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