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* १७२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
मधुकर वृत्ति की अभिव्यक्ति महाभारत में भी इस प्रकार हुई है
"यथा मधु समादत्ते, रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः।
तद्वदर्थान् मनुष्येभ्य, आदद्यादविहिंसया॥" -महाभारत ३४/१७ जैसे भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उनका मधु ग्रहण करता है, उसी प्रकार राजा भी प्रजाजनों को कष्ट दिए बिना ही कर के रूप में उनसे धन ग्रहण करे। दशवैकालिक के द्वितीय अध्ययन की प्रथम गाथा है
"कहं नु कुञा सामण्णं, जो कामे न निवारए।
पए पए विसीयंतो, संकप्पस्स वसं गओ॥" -दशवैकालिक २/१ वह कैसे श्रामण्य का पालन करेगा जो काम (विषय-राग) का निवारण नहीं करता, जो संकल्प के वशीभूत होकर पग-पग पर विषादग्रस्त होता है।
इसी प्रकार के भाव बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ संयुत्तनिकाय के निम्न श्लोक में परिलक्षित होते हैं
"दुक्करं दुत्तितिक्खध, अव्यत्तेन हि सामञ्ज। बहूहि तत्थ सम्बाधा, यत्थ बालो विसीदतीति।। कतिहं चरेय्य सामञ्ज, चित्तं चे न निवारए। पदे पदे विसीदेय्य, संकप्पानं वसानुगो॥"
-संयुत्तनिकाय १/१७ कितने दिनों तक वह श्रमण भाव को पालन कर सकेगा, यदि उसका चित्त वश में नहीं हो तो, जो इच्छाओं के आधीन रहता है वह कदम-कदम पर फिसल जाता है। दशवैकालिक के द्वितीय अध्ययन का सातवाँ श्लोक इस प्रकार है
"धिरत्थु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा। वन्तं इच्छसि आवेउं, सेयं ते मरणं भवे॥"
-दशवकालिक २/७ हे यशःकामिन् ! धिक्कार है तुझे ! जो तू क्षण-भंगुर जीवन के लिए वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इससे तो तेरा मरना श्रेय है।
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