________________
दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन १७१
किया, वह प्रायः कभी शब्दों में और कभी अर्थ में एक सदृश रहा है। उसी को हम यहाँ तुलनात्मक अध्ययन की अभिधा प्रदान कर रहे हैं। इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं कि एक-दूसरे ने विचार और शब्दों को एक-दूसरे से चुराया है। 'सौ सयाना एक मता' के अनुसार सौ समझदारों का एक ही मत होता है - सत्य को व्यक्त करने में समान भाव और भाषा का होना स्वाभाविक है। दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा है
“धम्मो मंगलमुकिट्टं, अहिंसा संजमो तवो ।
देवा वितं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥" - दशवैकालिक १/१ धर्म उत्कृष्ट मंगल है, अहिंसा, संयम और तप धर्म के लक्षण हैं, जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं।
तुलना कीजिए
"यम्हि सच्चं च धम्मो च, अहिंसा संयमो दमो। सवे वन्तमल धीरो, सो थेरो ति पवुच्चति ॥"
- धम्मपद (धम्मट्ठवग्गो १९ / ६) जिसमें सत्य, धर्म, अहिंसा, संयम और दम है, वह मलरहित धीर भिक्षु स्थविर कहलाता है ।
दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की दूसरी गाथा की तुलना धम्मपद (पुप्फवग्गी ४ / ६ ) से की जा सकती है
“जहा दुमस्स पुष्फेसु, भमरो आवियइ रसं ।
न य पुष्पं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥” -दशवैकालिक १/२
जिस प्रकार भ्रमरद्रुम- पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, किसी भी पुष्प को पीड़ा उत्पन्न नहीं करता और अपने को भी तृप्त कर लेता है।
तुलना कीजिए
Jain Education International
“यथापि भमरो पुष्पं, वण्णगन्धं अहेव्यं । पलेति रसमादाय, एवं गामे मुनी चरे ॥”
- धम्मपद (पुप्फवग्गो ४ / ६)
जैसे फूल या फूल लेकर चल देता है, उसी प्रकार मुनि गाँव में विचरण करे |
के वर्ण या गन्ध को बिना हानि पहुँचाए भ्रमर रस को
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org