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१६८ मूलसूत्र : एक परिशीलन
के लिए महाव्रत का जहाँ मूलगुण के रूप में विधान है वहाँ समिति और गुप्त का उत्तरगुण के रूप में विधान किया गया है, जिनका पालन जैन श्रमण के लिए अनिवार्य माना गया है।
इस प्रकार मोह-माया से मुक्त होकर श्रमण को अधिक से अधिक साधना में सुस्थिर होने की प्रबल प्रेरणा इस चूलिका द्वारा दी गई है। " चइज देहं न हु धम्मसासणं । " - शरीर का परित्याग कर दे किन्तु धर्मशासन को न छोड़े - यह है इस चूलिका का संक्षेप सार ।
द्वितीय चूलिका का नाम 'विविक्तचर्या' है। इसमें श्रमण की चर्या, गुणों और नियमों का प्रतिपादन किया गया है। इसमें अन्धानुसरण का विरोध किया गया है । आधुनिक युग में प्रत्येक प्रश्न बहुमत के आधार पर निर्णीत होते हैं, पर बहुमत का निर्णय सही ही हो, यह नहीं कहा जा सकता । बहुमत प्रायः मूर्खों का होता है, संसार में सम्यक् दृष्टि की अपेक्षा मिथ्यात्वियों की संख्या अधिक है; ज्ञानियों की अपेक्षा अज्ञानी अधिक हैं; त्यागियों की अपेक्षा भोगियों का प्राधान्य है; इसलिए साधना के क्षेत्र में बहुमत और अल्पमत का प्रश्न महत्त्व का नहीं है । वहाँ महत्त्व है सत्य की अन्वेषणा और उपलब्धि का । उस सत्य की उपलब्धि के साधन हैं-चर्या, गुण और नियम । श्रमण आचार में पराक्रम करे, वह गृहवास का परित्याग करे । सदा एक स्थान पर न रहे और न ऐसे स्थान पर रहे जहाँ रहने से उसकी साधना में बाधा उपस्थित होती हो। वह एकान्त स्थान जहाँ स्त्री, पुरुष, नपुंसक, पशु आदि न हों, वहाँ पर रहकर साधना करे । चर्या का अर्थ मूल व उत्तरगुण रूप चारित्र है और गुण का अर्थ है - चारित्र की रक्षा के लिए भव्य भावनाएँ । नियम का अर्थ है - प्रतिमा आदि अभिग्रह; भिक्षु की बारह प्रतिमाएँ नियम के अन्तर्गत ही हैं; स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि भी नियम हैं। जो इनका अच्छी तरह से पालन करता है वह प्रतिबुद्ध जीवी कहलाता है। वह अनुस्रोतगामी नहीं किन्तु प्रतिस्रोतगामी होता है । अनुत्रोत में मुर्दे बहा करते हैं तो प्रतिस्रोत में जीवित व्यक्ति तैरा करते हैं । साधक इन्द्रिय और मन के विषयों के प्रवाह में नहीं बहता । श्रमण मद्य और माँस का अभोजी होता है । माँस बौद्ध भिक्षु ग्रहण करते थे पर जैन श्रमणों के लिए उसका पूर्ण रूप से निषेध किया गया है। माँस और मदिरा का उपयोग करने वाले को नरकगामी बताया है। साथ ही श्रमणों के लिए दूध, दही आदि विकृतियाँ प्रतिदिन खाने का निषेध किया गया है।
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