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________________ दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १६७ * अशुभ प्रवृत्तियों से हटा लेना। गुप्ति शब्द का दूसरा अर्थ ढकने वाला या रक्षाकवच है। अर्थात् आत्मा की अशुभ प्रवृत्तियों से रक्षा करना गुप्ति है। गुप्तियाँ तीन हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति। मन को अप्रशस्त, कुत्सित और अशुभ विचारों से दूर रखना; संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ की हिंसक प्रवृत्तियों में जाते हुए मन को रोकना मनोगुप्ति है।२११ असत्य, कर्कश, अहितकारी एवं हिंसाकारी भाषा का प्रयोग नहीं करना; स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भोजनकथा आदि वचन की अशुभ प्रवृत्ति और असत्य वचन का परिहार करना वचनगुप्ति है।२१२ उत्तराध्ययन के अनुसार श्रमण अशुभ प्रवृत्तियों में जाते हुए वचन का निरोध करे।२१३ श्रमण उठने, बैठने, लेटने, नाली आदि लाँघने तथा पाँचों इन्द्रियों की प्रवृत्ति में नियमन करे ।२१४ दूसरे शब्दों में कहा जाए तो बन्धन, छेदन, मारण, आकुंचन, प्रसारण प्रभृति शारीरिक क्रियाओं से निवृत्ति कायगुप्ति है।२१५ जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात ग्रन्थ में भी गुप्ति शब्द का प्रयोग हुआ है।२१६ तथागत बुद्ध ने बौद्ध भिक्षुओं को आदेश दिया कि वे मन, वचन और शरीर की क्रियाओं का नियमन करें। तथागत बुद्ध ने अंगुत्तरनिकाय में तीन शुचि भावों का वर्णन किया है-शरीर की शुचिता, वाणी की शुचिता और मन की शुचिता। उन्होंने कहा-भिक्षुओ ! जो व्यक्ति प्राणी-हिंसा से विरत रहता है; तस्कर कृत्य से विरत रहता है; कामभोग सम्बन्धी मिथ्याचार से विरत रहता है, वह शरीर की शुचिता है। भिक्षुओ ! जो व्यक्ति असत्य भाषण से विरत रहता है; चुगली करने से विरत रहता है; व्यर्थ वार्तालाप से विरत रहता है, वह वाणी की शुचिता है। भिक्षुओ ! जो व्यक्ति निर्लोभ होता है; अक्रोधी होता है; सम्यक् दृष्टि होता है, वह मन की शुचिता है।२१७ इस तरह तथागत बुद्ध ने श्रमण साधकों के लिए मन, वचन और शरीर की अप्रशस्त प्रवृत्तियों को रोकने का सन्देश दिया है।२१८ इसी प्रकार गुप्ति के ही अर्थ में वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में त्रिदण्डी शब्द व्यवहृत हुआ है। दक्षस्मृति में दत्त ने कहा-केवल बाँस की दण्डी धारण करने से कोई संन्यासी या त्रिदण्डी परिव्राजक नहीं हो जाता। त्रिदण्डी परिव्राजक वही है जो अपने पास आध्यात्मिक दण्ड रखता हो।२१९ आध्यात्मिक दण्ड से यहाँ तात्पर्य मन, वचन और शरीर की क्रियाओं का नियंत्रण है। चाहे श्रमण हो, चाहे संन्यासी हो, उनके लिए यह आवश्यक है कि वे मन, वचन, काया की अप्रशस्त प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करें। बौद्ध और वैदिक परम्परा की अपेक्षा जैन परम्परा ने इस पर अधिक बल दिया है, जैन श्रमणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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