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दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १६९ * कायोत्सर्ग : एक चिन्तन
श्रमण के लिए पुनः-पुनः कायोत्सर्ग करने का विधान है। कायोत्सर्ग में शरीर के प्रति ममत्व का त्याग किया जाता है। साधक एकान्त-शान्त स्थान में शरीर से निस्पृह होकर खम्भे की तरह सीधा खड़ा हो जाता है, शरीर को न अकड़कर रखता है और न झुकाकर ही। दोनों बाँहों को घुटनों की ओर लम्बा करके प्रशस्त ध्यान में निमग्न हो जाता है। चाहे उपसर्ग और परीषह आयें, उनको वह शान्तभाव से सहन करता है। साधक उस समय न संसार के बाह्य पदार्थों में रहता है, न शरीर में रहता है, वह सब ओर से सिमटकर आत्म-स्वरूप में लीन हो जाता है। कायोत्सर्ग अन्तर्मुख होने की एक पवित्र साधना है। वह उस समय राग-द्वेष से ऊपर उठकर निःसंग और अनासक्त होकर शरीर की मोह-माया का परित्याग करता है। कायोत्सर्ग का उद्देश्य है शरीर के ममत्व को कम करना। कायोत्सर्ग में साधक यह चिन्तन करता हैयह शरीर अन्य है तथा मैं अन्य हूँ; मैं अजर-अमर चैतन्य रूप हूँ; मैं अविनाशी हूँ; यह शरीर क्षण-भंगुर है; इस मिट्टी के पिण्ड में आसक्त बनकर मैं कर्त्तव्य से पराङ्मुख क्यों बनूँ? शरीर मेरा वाहन है; मैं इस वाहन पर सवार होकर जीवन-यात्रा का लम्बा पथ तय करूँ। यदि यह शरीर मुझ पर सवार हो जायेगा तो कितनी अभद्र बात होगी ! इस प्रकार कायोत्सर्ग में शरीर के ममत्व-त्याग का अभ्यास किया जाता है। आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने कहा हैचाहे कोई भक्तिभाव से चन्दन लगाए, चाहे कोई द्वेषवश बसूले से छीले; चाहे जीवन रहे, चाहे इसी क्षण मृत्यु आ जाये, परन्तु जो साधक देह में आसक्ति नहीं रखता है, सभी स्थितियों में समचेतना रखता है, वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग सिद्ध होता है।२२०
कायोत्सर्ग के द्रव्य और भाव ये दो प्रकार हैं। द्रव्य-कायोत्सर्ग का अर्थ हैशरीर की चेष्टाओं का निरोध करके एक स्थान पर निश्चल और निस्पंद जिन-मुद्रा में खड़े रहना और भाव-कायोत्सर्ग है-आर्त और रौद्र दुानों का परित्याग कर धर्म और शुक्लध्यान में रमण करना; आत्मा के विशुद्ध स्वरूप की ओर गमन करना।२२१ इसी भाव-कायोत्सर्ग पर बल देते हुए शास्त्रकार ने कहा-कायोत्सर्ग सभी दुःखों का क्षय करने वाला है।२२२ भाव के साथ द्रव्य का कायोत्सर्ग भी आवश्यक है। द्रव्य और भाव कायोत्सर्ग के स्वरूप को समझाने के लिए कायोत्सर्ग के प्रकारान्तर से चार रूप बताए हैं
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