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________________ दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १६३ * भिक्षु : एक चिन्तन दसवें अध्ययन का नाम सभिक्षु अध्ययन है। जो भिक्षा कर अपना जीवन यापन करता है, वह भिक्षु कहलाता है। भिक्षा भिखारी भी माँगते हैं, वे दर-दर हाथ और झोली पसारे हुए दीन स्वर में भीख माँगते हैं। जो उन्हें भिक्षा देता है, उन्हें वे आशीर्वाद प्रदान करते हैं और नहीं देने वाले को कटु वचन कहते हैं, शाप देते हैं तथा रुष्ट होते हैं। भिखारी की भिक्षा केवल पेट भरने के लिए होती है। उस भिक्षा में कोई पवित्र उद्देश्य नहीं होता और न कोई शास्त्रसम्मत विधिविधान ही होता है। वह भिक्षा अत्यन्त निम्न स्तर की होती है। इस प्रकार की भिक्षा पौरुष भिक्षा है।२०२ वह भिक्षा पुरुषार्थ का नाश कर अकर्मण्य और आलसी बनाती है। ऐसे पुरुषत्वहीन माँगखोर व्यक्तियों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। वे माँगकर खाते ही नहीं, जमा भी करते हैं और दुर्व्यसनों में उसका उपयोग करते हैं। श्रमण अदीनभाव से अपनी श्रमण-मर्यादा और अभिग्रह के अनुकूल जो भिक्षा प्राप्त होती है उसे प्रसन्नता से ग्रहण करता है। भिक्षा में रूक्ष और नीरस पदार्थ मिलने पर वह रुष्ट नहीं होता और उत्तम, स्वादिष्ट पदार्थ मिलने पर तुष्ट नहीं होता। भिक्षा में कुछ भी प्राप्त नहीं हो तो भी वह खिन्न नहीं होता और मिलने पर हर्षित भी नहीं होता। वह दोनों ही स्थितियों में समभाव रखता है। इसलिए श्रमण की भिक्षा सामान्य भिक्षा न होकर सर्वसम्पत्करी भिक्षा है। सर्वसम्पत्करी२०३ भिक्षा देने वाले और लेने वाले दोनों के लिए कल्याणकारी है। जिसमें संवेग, निर्वेद, विवेक, सुशीलसंसर्ग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, विनय, शांति, मार्दव, आर्जव, तितिक्षा, आराधना, आवश्यक शुद्धि प्रभृति सद्गुणों का साम्राज्य हो वह भिक्षु है। सूत्रकृतांगसूत्र में भिक्षु की परिभाषा इस प्रकार है-जो निरभिमान, विनीत, पापमल को धोने वाला, दान्त, बन्धनमुक्त होने योग्य, निर्ममत्व, विविध प्रकार के परीषहों और उपसर्गों से अपराजित, अध्यात्मयोगी, विशुद्ध, चारित्र-सम्पन्न, सावधान, स्थितात्मा, यशस्वी, विवेकशील तथा परदत्तभोजी है, वह भिक्षु है।२०४ जो कर्मों का भेदन करता है वह भिक्षु कहलाता है। भिक्षु के भी द्रव्य-भिक्षु और भाव-भिक्षु ये दो प्रकार हैं। द्रव्य-भिक्षु माँगकर खाने के साथ ही त्रस, स्थावर जीवों की हिंसा करता है; सचित्तभोजी है; स्वयं पकाकर खाता है; सभी प्रकार की सावध प्रवृत्ति करता है; संचय करके रखता है; परिग्रही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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