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________________ १६२ मूलसूत्र : एक परिशीलन अर्हत्, अर्हत्प्ररूपित धर्म, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, क्रियावादी, सम आचार वाले श्रमण, मतिज्ञान आदि पाँच ज्ञान के धारक, इन पन्द्रह की आशातना न करना, बहुमान करना आदि पैंतालीस अनाशातनाविनय के भेद प्रतिपादित हैं । सामायिक आदि पाँच चारित्र और चारित्रवान् के प्रति विनय करना चारित्रविनय है । अप्रशस्त प्रवृत्ति से मन को दूर रखकर मन से प्रशस्त प्रवृत्ति करना मनोविनय है। सावद्य वचन की प्रवृत्ति न करना और वचन की निरवद्य व प्रशस्त प्रवृत्ति करना वचनविनय है। काया की प्रत्येक प्रवृत्ति में जागरूक रहना, चलना, उठना, बैठना, सोना आदि सभी प्रवृत्तियाँ उपयोगपूर्वक करना प्रशस्त कायविनय है । लोक - व्यवहार की कुशलता जिस विनय से सहज रूप से उपलब्ध होती है वह लोकोपचारविनय है । उसके सात प्रकार हैं। गुरु आदि के सन्निकट रहना, गुरुजनों की इच्छानुसार कार्य करना, गुरु के कार्य में सहयोग करना, कृत उपकारों का स्मरण करना, उनके प्रति कृतज्ञ भाव रखकर उनके उपकार से उऋण होने का प्रयास करना, रुग्ण श्रमण के लिए औषधि एवं पथ्य की गवेषणा करना, देश एवं काल को पहचानकर काम करना, किसी के विरुद्ध आचरण न करना, इस प्रकार विनय व्यापक पृष्ठभूमि है, जिसका प्रतिपादन इस अध्ययन में किया गया है। यदि शिष्य अनन्त ज्ञानी हो जाए तो भी गुरु के प्रति उसके अन्तर्मानस में वही श्रद्धा और भक्ति होनी चाहिए जो पूर्व में थी। जिन ज्ञानवान् जनों से किंचिन्मात्र भी ज्ञान प्राप्त किया है उनके प्रति सतत विनीत रहना चाहिए । जब शिष्य में विनय के संस्कार प्रबल होते हैं तो वह गुरुओं का सहज रूप से स्नेह - पात्र बन जाता है । अविनीत असंविभागी होता है और जो असंविभागी होता है उसका मोक्ष नहीं होता । १९८ इस अध्ययन में चार समाधियों का उल्लेख है - विनयसमाधि, श्रुतसमाधि, तपसमाधि और आचारसमाधि । आचार्य हरिभद्र १९९ ने समाधि का अर्थ आत्मा का हित, सुख और स्वास्थ्य किया है । विनय, श्रुत, तप और आचार के द्वारा आत्मा का हित होता है, इसलिए वह समाधि है । अगस्त्यसिंह स्थविर ने समारोपण तथा गुणों के समाधान अर्थात् स्थिरीकरण या स्थापन को समाधि कहा है। उनके मतानुसार विनय, श्रुत, तप और आचार के समारोपण या इनके द्वारा होने वाले गुणों के समाधान को विनयसमाधि, श्रुतसमाधि, तपसमाधि तथा आचारसमाधि कहा है। २०० विनय, श्रुत, तप तथा आचार; इनका क्या उद्देश्य है, इसकी सम्यक् जानकारी प्रस्तुत अध्ययन में है । यह अध्ययन नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु से उद्धृत है | २०१ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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