SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन १६१ आचार्य नेमिचन्द्र के प्रवचनसारोद्धार ग्रन्थ पर आचार्य सिद्धसेनसूरि ने एक वृत्ति लिखी है । उसमें उन्होंने लिखा है - क्लेश समुत्पन्न करने वाले आठ कर्मशत्रुओं को जो दूर करता है वह विनय है- “विनयति क्लेशकारकमष्टप्रकारं कर्म इति विनयः । " - विनय से अष्टकर्म नष्ट होते हैं । चार गति का अन्त कर वह साधक मोक्ष को प्राप्त करता है । विनय सद्गुणों का आधार है। जो विनीत होता है उसके चारों ओर सम्पत्ति मँडराती है और अविनीत के चारों ओर विपत्ति | भगवती, १९४ स्थानांग, १९५ औपपातिक १९६ में विनय के सात प्रकार बताए हैं- ( १ ) ज्ञानविनय, (२) दर्शनविनय, (३) चारित्रविनय, (४) मनविनय, (५) वचनविनय, (६) कायविनय, तथा (७) लोकोपचारविनय । ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि को विनय कहा गया है, क्योंकि उनके द्वारा कर्मपुद्गलों का विनयन यानि विनाश होता है । विनय का अर्थ यदि हम भक्ति और बहुमान करें तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के प्रति भक्ति और बहुमान प्रदर्शित करना है । जिस समाज और धर्म में ज्ञान और ज्ञानियों का सम्मान और बहुमान होता है, वह धर्म और समाज आगे बढ़ता है। ज्ञानी धर्म और समाज के नेत्र हैं। ज्ञानी के प्रति विनीत होने से धर्म और समाज में ज्ञान के प्रति आकर्षण बढ़ता है । इतिहास साक्षी है कि यहूदी जाति विद्वानों का बड़ा सम्मान करती थी, उन्हें हर प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करती थी, जिसके फलस्वरूप आइन्सटीन जैसा विश्वविश्रुत वैज्ञानिक उस जाति में पैदा हुआ अनेक मूर्धन्य वैज्ञानिक और लेखक यहूदी जाति की देन हैं । अमेरिका और रूस में जो विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति हुई है, उसका मूल कारण भी वहाँ पर वैज्ञानिकों और साहित्यकारों का सम्मान रहा है। भारत में भी राजागण जब कवियों को उनकी कविताओं पर प्रसन्न होकर लाखों रुपया पुरस्कारस्वरूप दे देते थे तब कविगण जमकर के साहित्य की उपासना करते थे । गीर्वाण गिरा का जो साहित्य समृद्ध हुआ उसका मूल कारण विद्वानों का सम्मान था । ज्ञानविनय के पाँच भेद औपपातिक में प्रतिपादित हैं। दर्शनविनय में साधक सम्यक् दृष्टि के प्रति विश्वास तथा आदरभाव प्रकट करता है। इस विनय के दो रूप हैं - ( १ ) शुश्रूषाविनय तथा (२) अनाशातनाविनय । औपपातिक के अनुसार दर्शनविनय के भी अनेक भेद हैं । देव, गुरु, धर्म आदि का अपमान हो, इस प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिए। आशातना का अर्थ ज्ञान आदि सद्गुणों की आय - प्राप्ति के मार्ग को अवरुद्ध करना है । १९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy