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* १५४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन अविवेकपूर्ण वचन नहीं बोलना चाहिए। वह विवेकपूर्ण वचन का ही प्रयोग करे। आचार्य मनु ने लिखा है- मुनि को सदैव सत्य ही बोलना चाहिए।५६ महाभारत शान्तिपर्व में वचन-विवेक पर विस्तार से प्रकाश डाला है।'५७ इन्द्रिय-संयम : एक चिन्तन
प्रस्तुत अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से उद्धृत है।५८ आठवें अध्ययन का नाम आचारप्रणिधि है। आचार एक विराट् निधि है। जिस साधक को यह अपूर्व निधि प्राप्त हो जाती है, उसके जीवन का कायाकल्प हो जाता है। उसका प्रत्येक व्यवहार अन्य साधकों की अपेक्षा पृथक् हो जाता है। उसका चलना, बैठना, उठना सभी विवेकयुक्त होता है। वह इन्द्रियरूपी अश्वों को सन्मार्ग की ओर ले जाता है। उसकी मन, वचन, कर्म और इन्द्रियाँ उच्छृखल नहीं होतीं। वह शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में समभाव धारण करता है। राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्मबन्धन नहीं करता है-इन्द्रियों पर वह नियंत्रण करता है। इन्द्रिय-संयम श्रवण-जीवन का अनिवार्य कर्त्तव्य है। यदि श्रमण इन्द्रियों पर संयम नहीं रखेगा तो श्रमण-जीवन में प्रगति नहीं कर सकेगा। प्रायः इन्द्रिय-सुखों की प्राप्ति के लिए ही व्यक्ति पतित आचरण करता है। इन्द्रिय-संयम का अर्थ है-इन्द्रियों को अपने विषयों के ग्रहण से रोकना एवं गृहीत विषय में राग-द्वेष न करना। हमारे अन्तर्मानस में इन्द्रियों के विषयों के प्रति जो आकर्षण उत्पन्न होता है उनका नियमन किया जाए।५९ श्रमण अपनी पाँचों इन्द्रियों को संयम में रखे और जहाँ भी संयममार्ग से पतन की संभावना हो वहाँ उन विषयों पर संयम करे। जैसे संकट समुपस्थित होने पर कछुआ अपने अंगों का समाहरण कर लेता है वैसे ही श्रमण इन्द्रियों की प्रवृत्तियों का समाहरण करे।६० बौद्ध श्रमणों के लिए भी इन्द्रिय-संयम आवश्यक माना है। धम्मपद में तथागत बुद्ध ने कहा-“नेत्रों का संयम उत्तम है, कानों का संयम उत्तम है, घ्राण और रसना का संयम भी उत्तम है, शरीर, वचन और मन का संयम भी उत्तम है, जो भिक्षु सर्वत्र सभी इन्द्रियों का संयम रखता है वह दुःखों से मुक्त हो जाता है।''१६१ स्थितप्रज्ञ का लक्षण बतलाते हुए श्रीकृष्ण ने वीर अर्जुन को कहा-“जिसकी इन्द्रियाँ वशीभूत हैं वही स्थितप्रज्ञ है।'१६२ इस प्रकार भारतीय परम्परा में चाहे श्रमण हो, चाहे संन्यासी हो उसके लिए इन्द्रिय-संयम आवश्यक है।६३
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