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दशवकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १५३ *
भाषा का विवेक रखकर बोलता है। इस प्रकार वचनसमिति का लाभ वक्ता
और श्रोता दोनों को मिलता है। प्रस्तुत अध्ययन में श्रमण को किस प्रकार की भाषा बोलनी चाहिए और किस प्रकार की भाषा नहीं बोलनी चाहिए, इस सम्बन्ध में चिन्तन करते कहा गया है कि श्रमण असत्य भाषा का प्रयोग न करे
और सत्यासत्य यानि मिश्र भाषा का भी प्रयोग न करे, क्योंकि असत्य और मिश्र सावध होती है। सावध भाषा से कर्मबन्ध होता है। जिस श्रमण को सावध
और अनवद्य का विवेक नहीं है, उसके लिए मौन रहना ही अच्छा है। आचारांगसूत्र में मुनि के लिए मौन का विधान है- "मुणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरीरगं।"-मुनि मौन-संयम को स्वीकार कर कर्मबन्धनों का क्षय करता है। सत्य और असत्यामृषा अर्थात् व्यवहार भाषा का प्रयोग यदि निरवद्य है तो उस भाषा का प्रयोग श्रमण कर सकता है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को बताने वाली भाषा सत्य होने पर भी यदि किसी के दिल में दर्द पैदा करती है तो वह भाषा श्रमण को नहीं बोलनी चाहिए। जैसे-अन्धे को अन्धा कहना, काने को काना कहना। सत्य होने पर भी वह अवक्तव्य है। बोलने के पूर्व साधक को सोचना चाहिए कि वह क्या बोल रहा है ? विज्ञ बोलने से पूर्व सोचता है तो मूर्ख बोलने के बाद में सोचता है ! एक बार जो अपशब्द मुँह से निकल जाते हैं, उनके बाद केवल पश्चात्ताप हाथ लगता है। वाणी के असंयम ने ही महाभारत का युद्ध करवाया, जिसमें भारत की विशिष्ट विभूतियाँ नष्ट हो गईं। इस प्रकार वाणी का प्रयोग आचार का प्रमुख अंग होने के कारण उस पर सूक्ष्म चिंतन इस अध्ययन में किया गया है। विवेकहीन वाणी और विवेकहीन मौन दोनों पर ही नियुक्तिकार भद्रबाहु ने चिन्तन किया है। जिस श्रमण में बोलने का विवेक है, भाषासमिति का पूर्ण परिज्ञान है वह बोलता हुआ भी मौनी है और अविवेकपूर्वक जो मौन रखता है, उसका मौन वाणी तक तो सीमित रहता है पर अन्तर्मानस में विकृत भावनाएँ पनप रही हों तो वह मौन सच्चा मौन नहीं है। उदाहरण के रूप में कोई श्रमण रुग्ण है, गुरुजन रात्रि में शिष्य को आवाज देते हैं। यदि शिष्य सोचे कि इस समय बोले तो सेवा के लिए उठना पड़ेगा, अतः मौन रख लूँ। इस प्रकार सोचकर उत्तर नहीं देता है तो वह मौन सही मौन नहीं है। अतः साधक को हर दृष्टि से चिन्तनपूर्वक बोलना चाहिए, उसकी वाणी पर विवेक का अंकुश हो। धम्मपद में कहा है कि जो भिक्षु वाणी में संयत है, मितभाषी है तथा विनीत है वही धर्म और अर्थ को प्रकाशित करता है, उसका भाषण मधुर होता है।५५ सुत्तनिपात में उल्लेख है कि भिक्षु को
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