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* १५२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
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धारण नहीं कर सकता तो श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से श्रमण वस्त्र को धारण कर सकता है। आचारचूला में श्रमण को एक वस्त्र सहित, दो वस्त्र सहित आदि कहा है।१४५ उत्तराध्ययन में श्रमण की सचेल और अचेल इन दोनों अवस्थाओं का वर्णन है।४६ आचारांग में जिनकल्पी श्रमणों के लिए शीत ऋतु व्यतीत हो जाने पर अचेल रहने का भी विधान है।४७ प्रशमरति प्रकरण में आचार्य उमास्वाति ने धर्म-देहरक्षा के निमित्त अनुज्ञात पिण्ड, शय्या आदि के साथ वस्त्रैषणा का भी उल्लेख किया है।४८ उन्होंने उसी ग्रन्थ में श्रमणों के लिए कौन-सी वस्तु कल्पनीय है और कौन-सी वस्तु अकल्पनीय है, इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए वस्त्र का उल्लेख किया है।४९ तत्त्वार्थभाष्य में एषणासमिति के प्रसंग में वस्त्र का उल्लेख किया है।५० इस प्रकार श्वेताम्बर साहित्य में अनेक स्थलों पर वस्त्र का निधान श्रमणों के लिए प्राप्त है। आगम साहित्य में सचेलता और अचेलता दोनों प्रकार के विधान मिलते हैं। अब प्रश्न यह हैश्रमण निर्ग्रन्थ अपरिग्रही होता है तो फिर वह वस्त्र किस प्रकार रख सकता है? भंडोपकरण को भी परिग्रह माना गया है। पर आचार्य शय्यम्भव ने कहा“जो आवश्यक वस्त्र-पात्र संयम-साधना के लिए हैं वे परिग्रह नहीं हैं, क्योंकि उन वस्त्र-पात्रों में श्रमण की मूर्छा नहीं होती है। वे तो संयम और लज्जा के लिए धारण किये जाते हैं। वे वस्त्र-पात्र संयम-साधना में उपकारी होते हैं, इसलिए वे धर्मोपकरण हैं।" इस प्रकार परिग्रह की बहुत ही सटीक परिभाषा प्रस्तुत अध्ययन में दी गई है।'५१ वाणी-विवेक : एक विश्लेषण ___ सातवें अध्ययन का नाम वाक्य-शुद्धि है। जैनधर्म ने वाणी के विवेक पर अत्यधिक बल दिया है। मौन रहना वचनगुप्ति है। विवेकपूर्वक वाणी का प्रयोग करना भाषासमिति है। श्रमण असत्य, कर्कश, अहितकारी एवं हिंसाकारी भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता। वह स्त्रीविकथा, राजदेशविकथा, चोरविकथा, भोजनविकथा आदि वचन की अशुभ प्रवृत्ति का परिहार करता है। ५२ वह अशुभ प्रवृत्तियों में जाते हुए वचन का निरोध कर वचनगुप्ति का पालन करता है।५३ मुनि प्रमाण, नय, निक्षेप से युक्त अपेक्षा दृष्टि से हित, मित, मधुर तथा सत्य भाषा बोलता है।५४
श्रमण साधना की उच्च भूमि पर अवस्थित है अतः उसे अपनी वाणी पर बहुत ही नियंत्रण और सावधानी रखनी होती है। श्रमण सावद्य और अनवद्य
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