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________________ दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन १५१ में की गई है, तो इस अध्ययन में साधक के अन्तर्मानस में उबुद्ध हुए विविध प्रश्नों के समाधान हेतु दोषों से बचने का निर्देश है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि तृतीय अध्ययन में अनाचारों का सामान्य निरूपण है तो इस अध्ययन में विशेष निरूपण है । यत्र-तत्र उत्सर्ग और अपवाद की भी चर्चा की गई है। उत्सर्ग में जो बातें निषिद्ध कही गई हैं, अपवाद में वे परिस्थितिवश ग्रहण भी की जाती हैं। इस प्रकार इस अध्ययन में सहेतुक निरूपण हुआ है। आध्यात्मिक साधना की परिपूर्णता के लिए श्रद्धा और ज्ञान, ये दोनों पर्याप्त नहीं हैं किन्तु उसके लिए आचरण भी आवश्यक है। बिना सम्यक् आचरण के आध्यात्मिक परिपूर्णता नहीं आती । सम्यक् आचरण के पूर्व सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान आवश्यक है। सम्यक् दर्शन का अर्थ श्रद्धा है और सम्यक् ज्ञान अर्थ तत्त्व का साक्षात्कार है। श्रद्धा और ज्ञान की परिपूर्णता जैन दृष्टि से तेरहवें गुणस्थान में हो जाती है किन्तु सम्यक् चारित्र की पूर्णता न होने से मोक्ष प्राप्त नहीं होता । चौदहवें गुणस्थान में सम्यक् चारित्र की पूर्णता होती है तो उसी क्षण आत्मा मुक्त हो जाता है। इस प्रकार आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में उठाया गया कदम अन्तिम चरण है। सम्यक् दर्शन परिकल्पना है, सम्यक् ज्ञान प्रयोग विधि है और सम्यक् चारित्र प्रयोग है । तीनों के संयोग से सत्य का पूर्ण साक्षात्कार होता है। ज्ञान का सार आचरण है और आचरण का सार निर्वाण या परमार्थ को उपलब्धि है । छठे अध्ययन का अपर नाम 'धर्मार्थकाम' मिलता है । मूर्धन्य मनीषियों की कल्पना है कि इस अध्ययन की चौथी गाथा में 'हंदि धमत्थकामाणं' शब्द का प्रयोग हुआ है, इस कारण इस अध्ययन का नाम 'धर्मार्थकाम' हो गया है। यहाँ पर धर्म से अभिप्राय मोक्ष है। श्रमण मोक्ष की कामना करता है । इसलिए श्रमण का विशेषण धर्मार्थकाम है। श्रमण का आचार - गोचर अत्यधिक कठोर होता है। उस कठोर आचार का प्रतिपादन प्रस्तुत अध्ययन में हुआ है, इसलिए सम्भव है इसी कारण इस अध्ययन का नाम धर्मार्थकाम रखा हो। १४४ इस अध्ययन में स्पष्ट शब्दों में लिखा है, जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण हैं उन्हें मुनि संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते और उनका उपयोग करते हैं । सब जीवों के त्राता ज्ञातपुत्र महावीर ने वस्त्र आदि को परिग्रह नहीं कहा है। मूर्च्छा परिग्रह है, ऐसा महर्षि ने कहा । श्रमणों के वस्त्रों के सम्बन्ध में दो परम्पराएँ रही हैं - दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से श्रमण वस्त्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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