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________________ दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १५५ * - . - . - . - . - . - . - . - . - . - . कषाय : एक विश्लेषण श्रमण को इन्द्रियनिग्रह के साथ कषायनिग्रह भी आवश्यक है। कषाय शब्द क्रोध, मान, माया, लोभ का संग्राहक है। यह जैनधर्म का पारिभाषिक शब्द है। कष और आय इन दो शब्दों के मेल से कषाय शब्द निर्मित हुआ है। ‘कष' का अर्थ संसार, कर्म या जन्म-मरण है और आय का अर्थ लाभ है। जिससे प्राणी कर्मों से बाँधा जाता है अथवा जिससे जीव पुनः-पुनः जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है वह कषाय है।'६" स्थानांगसूत्र के अनुसार पापकर्म के दो स्थान हैंराग और द्वेष। राग माया और लोभरूप है तथा द्वेष क्रोध और मानरूप है।१६५ आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य में नयों के आधार से राग-द्वेष का कषायों के साथ क्या सम्बन्ध है. इस पर चिन्तन किया है। संग्रहनय की दृष्टि से क्रोध और मान ये दोनों द्वेषरूप हैं। माया और लोभ ये दोनों रागरूप हैं। इसका कारण यह है कि क्रोध और मान में दूसरे के प्रति अहित की भावना सन्निहित है। व्यवहारनय की दृष्टि से क्रोध, मान और माया ये तीनों द्वेष के अन्तर्गत आते हैं। माया में भी दूसरे का अहित हो, इस प्रकार की विचारधारा रहती है। लोभ एकाकी राग में है, क्योंकि उसमें ममत्वभाव है। ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से केवल क्रोध ही द्वेषरूप है। मान. माया. लोभ ये तीनों कषाय न राग-प्रेरित हैं और न द्वेष-प्रेरित। वे जब राग से उत्प्रेरित होते हैं तो रागरूप हैं और जब द्वेष से प्रेरित होते हैं तो द्वेषरूप हैं।१६६ चारों कषाय राग-द्वेषात्मक पक्षों की आवेगात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं। क्रोध एक उत्तेजक आवेग है जिससे विचारक्षमता और तर्कशक्ति प्रायः शिथिल हो जाती है। भगवतीसूत्र में क्रोध के द्रव्य-क्रोध और भाव-क्रोध ये दो भेद किये हैं।१६७ द्रव्य-क्रोध से शारीरिक चेष्टाओं में परिवर्तन आता है और भाव-क्रोध से मानसिक अवस्था में परिवर्तन आता है। क्रोध का अनुभूत्यात्मक पक्ष भाव-क्रोध है और क्रोध का अभिव्यक्त्यात्मक पक्ष द्रव्य-क्रोध है। क्रोध का आवेग सभी में एक सदृश नहीं होता, वह तीव्र और मंद होता है। तीव्रतम क्रोध अनन्तानुबन्धी क्रोध कहलाता है। तीव्रतर क्रोध अप्रत्याख्यानी क्रोध के नाम से विश्रुत है। तीव्र क्रोध प्रत्याख्यानी क्रोध की संज्ञा से पुकारा जाता है और अल्प क्रोध संज्वलन क्रोध के रूप में पहचाना जाता है। मान कषाय का दूसरा प्रकार है। मानव में स्वाभिमान की मूल प्रवृत्ति है। जब वह प्रवृत्ति दम्भ और प्रदर्शन का रूप ग्रहण करती है तब मानव के Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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