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________________ १४८ मूलसूत्र : एक परिशीलन कर्मबन्धन का कारण नहीं और जिस कार्य में विवेक का अभाव है, उस कार्य से कर्मबन्धन होता है। जैसे प्राचीन युग में योद्धागण रणक्षेत्र में जब जाते थे तब शरीर पर कवच धारण कर लेते थे । कवच धारण करने से शरीर पर तीक्ष्ण बाणों का कोई असर नहीं होता, कवच से टकराकर बाण नीचे गिर जाते, वैसे ही विवेक के कवच को धारण कर साधक जीवन के क्षेत्र में प्रवृत्ति करता है। उस पर कर्मबन्धन के बाण नहीं लगते। विवेकी साधक सभी जीवों के प्रति समभाव रखता है, उसमें 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भव्य भावना अँगड़ाइयाँ लेती हैं। इसलिए वह किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार से पीड़ा नहीं पहुँचाता । इस अध्ययन में इस बात पर भी बल दिया गया है कि पहले ज्ञान है उसके पश्चात् चारित्र है। ज्ञान के अभाव में चारित्र सम्यक् नहीं होता । पहले जीवों का ज्ञान होना चाहिए। जिसे षड्जीवनिकाय का परिज्ञान है, वही जीवों के प्रति दया रख सकेगा। जिसे यह परिज्ञान ही नहीं है-जीव क्या है ? अजीव क्या है ? वह जीवों की रक्षा किस प्रकार कर सकेगा ? इसीलिए मुक्ति का आरोह-क्रम जानने के लिए इस अध्ययन में बहुत ही उपयोगी सामग्री दी गई है। जीवाजीवाभिगम, आचार, धर्मप्रज्ञप्ति, चारित्रधर्म, चरण और धर्म ये छहों षड्जीवनिकाय के पर्यायवाची हैं । १२७ नियुक्तिकार भद्रबाहु के अभिमतानुसार यह अध्ययन आत्म-प्रवादपूर्व से उद्धृत है । १२८ । एषणा : विश्लेषण पाँचवें अध्ययन का नाम पिण्डैषणा है । पिण्ड शब्द 'पिंडी संघाते ' धातु से निर्मित है | चाहे सजातीय पदार्थ हो या विजातीय, उस ठोस पदार्थ का एक स्थान पर इकट्ठा हो जाना पिण्ड कहलाता है । पिण्ड शब्द तरल और ठोस दोनों के लिए व्यवहृत हुआ है । आचारांग में पानी की एषणा के लिए पिण्डैषणा शब्द का प्रयोग हुआ है । १२९ संक्षेप में यदि कहा जाय तो अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, इन सभी की एषणा के लिए पिण्डैषणा शब्द का व्यवहार हुआ है । १३० दोषरहित शुद्ध व प्रासुक आहार आदि की एषणा करने का नाम पिण्डैषणा है। पिण्डैषणा का विवेचन आचारचूला विस्तार से हुआ है। उसी का संक्षेप में निरूपण इस अध्ययन में है । स्थानांगसूत्र में पिण्डैषणा के सात प्रकार बताए हैं- (१) संसृष्टा - देय वस्तु से लिप्त हाथ या कड़छी आदि से देने पर भिक्षा ग्रहण करना, (२) असंसृष्टा - देय वस्तु से अलिप्त हाथ या कड़छी आदि से भिक्षा देने पर ग्रहण करना, (३) उद्धृता - अपने प्रयोजन के लिए राँधने के पात्र से दूसरे पात्र में निकाला हुआ आहार ग्रहण करना, (४) अल्पलेपा - अल्पलेप वाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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