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________________ दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १४७ * रजत आदि धातुओं को ग्रहण नहीं करना चाहिए।२५ जीवन यापन के लिए जितने वस्त्र-पात्र अपेक्षित हैं, उनसे अधिक नहीं रखना चाहिए। यदि वह आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है तो दोषी है। बौद्ध भिक्षु तीन चीवर, भिक्षापात्र, पानी छानने के लिए छन्ने से युक्त पात्र आदि सीमित वस्तुएँ रख सकता है। २६ यहाँ तक कि भिक्षु के पास जो सामग्री है उसका अधिकारी संघ है। वह उन वस्तुओं का उपयोग कर सकता है पर उनका स्वामी नहीं है। शेष जो चार शील हैं-मद्यपान, विकाल भोजन, नृत्यगीत, उच्च शय्यावर्जन आदि का महाव्रत के रूप में उल्लेख नहीं है पर वे श्रमणों के लिए वर्ण्य हैं। दस भिक्षुशील और महाव्रतों में समन्वय की दृष्टि से देखा जाय तो बहुत कुछ समानता है, तथापि जैन श्रमणों की आचार-संहिता में और बौद्ध परम्परा की आचार-संहिता में अन्तर है। बौद्ध परम्परा में भी दस भिक्षुशीलों के लिए मन, वचन, काया तथा कृत, कारित, अनुमोदित की नव कोटियों का विधान है पर वहाँ औदेशिक हिंसा से बचने का विधान नहीं है। जैन श्रमण के लिए यह विधान है कि यदि कोई गृहस्थ साधु के निमित्त हिंसा करता है और यदि श्रमण को यह ज्ञात हो जाये तो वह आहार आदि ग्रहण नहीं करता। जैन श्रमण के निमित्त भिक्षा तैयार की हुई हो या आमंत्रण दिया गया हो तो वह किसी भी प्रकार का आमंत्रण स्वीकार नहीं करता। बुद्ध, अपने लिए प्राणीवध कर जो माँस तैयार किया होता उसे निषिद्ध मानते थे पर सामान्य भोजन के सम्बन्ध में, चाहे वह भोजन औद्देशिक हो, वे स्वीकार करते थे। वे भोजन आदि के लिए दिया गया आमंत्रण भी स्वीकार करते थे। इसका मूल कारण है अग्नि, पानी आदि में बौद्ध परम्परा ने जैन परम्परा की तरह जीव नहीं माने हैं। इसलिए सामान्य भोजन में औद्देशिक दृष्टि से होने वाली हिंसा की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया। बौद्ध परम्परा में दस शीलों का विधान होने पर भी उन शीलों के पालन में बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियाँ उतनी सजग नहीं रहीं जितनी जैन परम्परा के श्रमण और श्रमणियाँ सजग रहीं। आज भी जैन श्रमण-श्रमणियों के द्वारा महाव्रतों का पालन जागरूकता के साथ किया जाता है जबकि बौद्ध और वैदिक परम्परा उनके प्रति बहुत ही उपेक्षाशील हो गई है। नियमों के पालन की शिथिलता ने ही तथागत बुद्ध के बाद बौद्ध भिक्षु संघ में विकृतियाँ पैदा कर दी। महाव्रतों के वर्णन के पश्चात् प्रस्तुत अध्ययन में विवेकयुक्त प्रवृत्ति पर बल दिया है। जिस कार्य में विवेक का आलोक जगमगा रहा है, वह कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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