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________________ १४६ मूलसूत्र : एक परिशीलन के दस शील का विधान है जो महाव्रतों के साथ मिलते-जुलते हैं। वे दस शील इस प्रकार हैं - ( १ ) प्राणातिपात - विरमण, (२) अदत्तादान - विरमण, (३) कामेसुमिच्छाचार - विरमण, (४) मूसावाद (मृषावाद) - विरमण, (५) सुरा-मेरय - मद्य ( मादक द्रव्य) - विरमण, (६) विकाल भोजन - विरमण, (७) नृत्य-गीतवादित्र - विरमण, (८) माल्य धारण, गन्धविलेपन - विरमण, (९) उच्च शय्या, महाशय्या - विरमण, (१०) जातरूप-रजतग्रहण (स्वर्ण रजतग्रहण) - विरमण । ११२ महाव्रत और शील में भावों की दृष्टि से बहुत कुछ समानता है। । सुत्तनिपात ११३ के अनुसार भिक्षु के लिए मन, वचन, काया और कृत, कारित तथा अनुमोदित हिंसा का निषेध किया गया है । विनयपिटक ११४ के विधानानुसार भिक्षु के लिए वनस्पति तोड़ना, भूमि को खोदना निषिद्ध है क्योंकि उससे हिंसा होने की सम्भावना है। बौद्ध परम्परा ने पृथ्वी, पानी आदि में जीव की कल्पना तो की है पर भिक्षु आदि के लिए सचित्त जल आदि का निषेध नहीं है, केवल जल छानकर पीने का विधान है। जैन श्रमण की तरह बौद्ध भिक्षुक भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति भिक्षावृत्ति के द्वारा करता है । विनयपिटक में कहा गया है - जो भिक्षु बिना दी हुई वस्तु को लेता है वह श्रमणधर्म से च्युत हो जाता है ।११५ संयुक्तनिकाय में लिखा है- यदि भिक्षुक फूल को सूँघता है तो भी वह चोरी करता है। ११६ बौद्ध भिक्षुक के लिए स्त्री का स्पर्श भी वर्ज्य माना है । ११७ आनन्द ने तथागत बुद्ध से प्रश्न किया- “भदन्त ! हम किस प्रकार स्त्रियों के साथ बर्ताव करें ?" तथागत ने कहा- “उन्हें मत देखो।" आनन्द ने पुनः जिज्ञासा व्यक्त की- “यदि वे दिखाई दे जाएँ तो हम उनके साथ कैसा व्यवहार करें ?” तथागत ने कहा- "उनके साथ वार्त्तालाप नहीं करना चाहिए।" आनन्द ने कहा- “भदन्त ! यदि वार्त्तालाप का प्रसंग उपस्थित हो जाये तो क्या करना चाहिए ?” बुद्ध ने कहा - " उस समय भिक्षु को अपनी स्मृति को सँभाले रखना चाहिए।" भिक्षु का एकान्त स्थान में भिक्षुणी के साथ बैठना भी अपराध माना गया है ।' ११९ बौद्ध भिक्षु के लिए विधान है कि वह स्वयं असत्य न बोले, अन्य किसी से असत्य न बुलवाये और न किसी को असत्य बोलने की अनुमति दे। १२० बौद्ध भिक्षु सत्यवादी होता है, वह न किसी की चुगली करता है और न कपटपूर्ण वचन ही बोलता है । १२१ बौद्ध भिक्षु के लिए विधान है - जो वचन सत्य हो, हितकारी हो, उसे बोलना चाहिए । १२२ जो भिक्षु जानकर असत्य वचन बोलता है, अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता है तो वह प्रायश्चित्त योग्य दोष माना है।१२३ गृहस्थोचित भाषा बोलना भी बौद्ध भिक्षु के लिए व है । २४ बौद्ध भिक्षु के लिए परिग्रह रखना वर्जित माना गया है। भिक्षु को स्वर्ण, ११८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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