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________________ -.-.-.-.-.-.-. दशवकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १४९ * यानि चना, बादाम, पिस्ते, द्राक्षा आदि रूखी वस्तुएँ लेना, (५) अवगृहीता-खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना, (६) प्रगृहीता-परोसने के लिए कड़छी या चम्मच आदि से निकाला हुआ आहार लेना या खाने वाले व्यक्ति के द्वारा अपने हाथ से कँवल उठाया गया हो पर खाया न गया हो, उसे ग्रहण करना, (७) उज्झितधर्मा-जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य है, उसे लेना।३१ भिक्षा : ग्रहण-विधि प्रस्तुत अध्ययन में बताया है कि श्रमण आहार के लिए जाये तो गृहस्थ के घर में प्रवेश करके शुद्ध आहार की गवेषणा करे। वह यह जानने का प्रयास करे कि यह आहार शुद्ध और निर्दोष है या नहीं?”३२ इस आहार को लेने से पश्चात्कर्म आदि दोष तो नहीं लगेंगे? यदि आहार अतिथि आदि के लिए बनाया गया हो तो उसे लेने पर गृहस्थ को दोबारा तैयार करना पड़ेगा या गृहस्थ को ऐसा अनुभव होगा कि मेहमान के लिए भोजन बनाया और मुनि बीच में ही आ टपके। उनके मन में नफरत की भावना हो सकती है, अतः वह आहार भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। किसी गर्भवती महिला के लिए बनाया गया हो-वह खा रही हो और उसको अन्तराय लगे वह आहार भी श्रमण ग्रहण न करे।३३ गरीब और भिखारियों के लिए तैयार किया हुआ आहार भिक्षु के लिए अकल्पनीय है।३४ दो साझीदारों का आहार हो और दोनों की पूर्ण सहमति न हो तो वह आहार भी भिक्षु ग्रहण न करे।३५ इस तरह भिक्षु प्राप्त आहार की आगम के अनुसार एषणा करे। वह भिक्षा न मिलने पर निराश नहीं होता। वह यह नहीं सोचता कि यह कैसा गाँव है, जहाँ भिक्षा भी उपलब्ध नहीं हो रही है ! प्रत्युत वह सोचता है कि अच्छा हुआ, आज मुझे तपस्या का सुनहरा अवसर अनायास प्राप्त हो गया। भगवान महावीर ने कहा है कि श्रमण को ऐसी भिक्षा लेनी चाहिए जो नवकोटि परिशुद्ध हो अर्थात् पूर्ण रूप से अहिंसक हो। भिक्षु भोजन के लिए न स्वयं जीव-हिंसा करे और न करवाए तथा न हिंसा करते हुए का अनुमोदन करे। न वह स्वयं अन्न पकाए, न पकवाए और न पकाते हुए का अनुमोदन करे तथा न स्वयं मोल ले, न लिवाए और न लेने वाले का अनुमोदन करे। २६ श्रमण को जो कुछ भी प्राप्त होता है, वह भिक्षा से ही प्राप्त होता है। इसीलिए कहा है-“सव्वं से जाइयं होई णत्थि किंचि अजाइयं।"१३७ भिक्षु को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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