SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशवकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन *१४१ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.सब इन्द्रियों के विषयों से निवृत्त कर आत्मा की रक्षा करे। शास्त्रकार ने आत्म-रक्षा पर अधिक बल दिया है, जबकि चरक और सुश्रुत ने देह-रक्षा पर अधिक बल दिया है। उनका यह स्पष्ट मन्तव्य रहा कि नगर-रक्षक नगर का ध्यान रखता है, गाड़ीवान गाड़ी का ध्यान रखता है, वैसे ही विज्ञ मानव शरीर का पूर्ण ध्यान रखे।६ स्वास्थ्य-रक्षा के लिए चरक ने निम्न नियम आवश्यक बताए हैंसौवीरांजन आँखों में काला सुरमा आँजना। नस्यकर्म-नाक में तेल डालना। दन्त-धावन-दतौन करना। जिह्वा-निर्लेखन-जिह्वा के मैल को शलाका से खुरचकर निकालना। अभ्यंग-तेल का मर्दन करना। शरीर-परिमार्जन-तौलिए आदि के द्वारा मैल उतारने के लिए शरीर को रगड़ना, स्नान करना, उबटन लगाना। गन्धमाल्य-निषेवण-चन्दन, केसर प्रभृति सुगन्धित द्रव्यों का शरीर पर लेप करना, सुगन्धित फूलों की मालाएँ धारण करना। रत्नाभरण-धारण-रत्नों से जटित आभूषण धारण करना। शौचाधान-पैरों को, मलमार्ग (नाक, कान, गुदा, उपस्थ) आदि को प्रतिदिन पुनः-पुनः साफ करना। सम्प्रसाधन केश आदि को कटवाना तथा बालों में कंघी करना। पादत्राण-धारण-जूते पहनना। छत्र-धारण-छत्ता धारण करना। दण्ड-धारण-दण्ड (छड़ी) धारण करना। ये सारे नियम यहाँ अधिकांशतः श्रमण के अनाचार में आये हैं अथवा अन्य आगम-साहित्य में श्रमणों के लिए निषिद्ध कहे हैं। इसका यही कारण है कि श्रमणों के लिए शरीर-रक्षा की अपेक्षा संयम-रक्षा प्रधान है। संयम-रक्षा के लिए इन्द्रिय-समाधि आवश्यक है। स्नान आदि कामाग्नि-सन्दीपक हैं. अतः भगवान महावीर ने उन सभी को अनाचार की कोटि में परिगणित किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy