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१४० मूलसूत्र : एक परिशीलन
उस समय षड्वर्गीय भिक्षु नहाते समय खम्भे से शरीर को भी रगड़ते थे। बुद्ध ने कहा- “भिक्षुओ ! नहाते समय भिक्षु को खम्भे से शरीर को न रगड़ना चाहिए, जो रगड़े उसको दुक्कड (दुष्कृत) की आपत्ति है । ८७
छाता - जूता
विनयपिटक में जूते, खड़ाऊँ, पादुका प्रभृति विधि-निषेधों के सम्बन्ध में चर्चाएँ हैं।“ उस समय षड्वर्गीय भिक्षु जूता धारण करते थे । वे जब जूता धारण कर गाँव में प्रवेश करते, तो लोग हैरान होते थे। जैसे काम -भोगी गृहस्थ हों । बुद्ध ने कहा- “भिक्षुओ ! जूता पहने गाँव में प्रवेश नहीं करना चाहिए । जो प्रवेश करता है, उसे दुक्कड दोष है । ८९
किसी समय एक भिक्षु रुग्ण हो गया। वह बिना जूता धारण किये गाँव में प्रवेश नहीं कर सकता था । उसे देख बुद्ध ने कहा- “भिक्षुओ ! मैं अनुमति देता हूँ बीमार भिक्षु को जूता पहनकर गाँव में प्रवेश करने की।” १० जो भिक्षु पूर्ण निरोग होने पर भी छाता धारण करता है, उसे तथागत बुद्ध ने पाचित्तिय कहा है । ९१
इस तरह बुद्ध ने छाता और जूते धारण करने के सम्बन्ध में विधि और निषेध दोनों बताये हैं ।
दीघनिकाय में तथागत बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए माला, गंध-विलेपन, उबटन तथा सजने-सजाने का निषेध किया है । ९२
मनुस्मृति, १३ श्रीमद्भागवत आदि में ब्रह्मचारी के लिए गंध, माल्य, उबटन, अंजन, जूते और छत धारण का निषेध किया है। भागवत में वानप्रस्थ के लिए दातुन करने का भी निषेध है । ९५
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं ने श्रमण और संन्यासी के लिए कष्ट सहन करने का विधान एवं शरीर-परिकर्म का निषेध किया है । यह सत्य है कि ब्राह्मण परम्परा ने शरीर शुद्धि पर बल दिया तो जैन परम्परा ने आत्म-शुद्धि पर बल दिया । यहाँ पर सहज जिज्ञासा हो सकती है कि आयुर्वेदिक ग्रन्थों में जो बातें स्वास्थ्य के लिए आवश्यक मानी हैं उन्हें शास्त्रकार ने अनाचार क्यों कहा है ? समाधान है कि श्रमण शरीर से भी आत्म-शुद्धि पर अधिक बल दे । स्वास्थ्य - रक्षा से पहले आत्म-रक्षा आवश्यक है । "अप्पा हु खलु सययं रक्खियव्वो, सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं ।” श्रमण
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