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दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १३९ * में बैठ सकता है। उसमें न तो ब्रह्मचर्य के प्रति शंका उत्पन्न होती है और न अन्य किसी भी प्रकार की विराधना की ही संभावना है। इसलिए वह अनाचार नहीं है। ५ जो कार्य सौन्दर्य की दृष्टि से, शोभा या गौरव की दृष्टि से किए जायें वे अनाचार हैं पर वे कार्य भी रुग्णावस्था आदि विशेष परिस्थिति में किये जायें तो अनाचार नहीं हैं। उदाहरण के रूप में नेत्र-रोग होने पर अंजन आदि का उपयोग। कितने ही अनाचारों के सेवन में प्रत्यक्ष हिंसा है, कितने ही अनाचारों के सेवन से वे हिंसा के निमित्त बनते हैं और कितने ही अनाचारों के सेवन में हिंसा का अनुमोदन होता है, कितने ही कार्य स्वयं में दोषपूर्ण नहीं हैं किन्तु बाद में वे कार्य शिथिलाचार के हेतु बन सकते हैं, अतः उनका निषेध किया गया है। इस प्रकार अनेक हेतु अनाचार के सेवन में रहे हुए हैं।
जैन परम्परा में जो आचार-संहिता है, उसके पीछे अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का दृष्टिकोण प्रधान है। अन्य भारतीय परम्पराओं ने भी न्यूनाधिक रूप से उसे स्वीकार किया है। स्नान
तथागत बुद्ध ने पन्द्रह दिन से पहले जो भिक्षु स्नान करता है उसे प्रायश्चित्त का अधिकारी माना है। यदि कोई भिक्षु विशेष परिस्थिति में पन्द्रह दिन से पहले नहाता है तो पाचित्तिय है। विशेष परिस्थिति यह है-ग्रीष्म के पीछे के डेढ़ मास
और वर्षा का प्रथम मास, यह ढाई मास और गर्मी का समय, जलन होने का समय, रोग का समय, काम (लीपने-पोतने आदि का समय), रास्ता चलने का समय तथा आँधी-पानी का समय। ६
भगवान महावीर की भाँति तथागत बुद्ध की आचार-संहिता कठोर नहीं थी। कठोरता के अभाव में भिक्षु स्वच्छन्दता से नियमों का भंग करने लगे, तब बुद्ध ने स्नान के सम्बन्ध में अनेक नियम बनाये। ___ एक बार तथागत बुद्ध राजगृह में विचरण कर रहे थे। उस समय षड्वर्गीय भिक्षु नहाते हुए शरीर को वृक्ष से रगड़ते थे। जंघा, बाहु, छाती और पेट को भी। जब भिक्षुओं को इस प्रकार कार्य करते हुए देखते तो लोग खिन्न होते, धिक्कारते।
तथागत ने भिक्षुओं को सम्बोधित किया-"भिक्षुओ ! नहाते हुए भिक्षु को वृक्ष से शरीर को न रगड़ना चाहिए, जो रगड़े उसको 'दुष्कृत' की आपत्ति है।"
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