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________________ * १३८ मूलसूत्र : एक परिशीलन इस अध्ययन का नाम आचारकथा है । दशवैकालिक के छठे अध्ययन में 'महाचारकथा' का निरूपण है । उस अध्ययन में विस्तार के साथ आचार पर चिन्तन किया गया है तो इस अध्ययन में उस अध्ययन की अपेक्षा संक्षिप्त में आचार का निरूपण है । इसलिए इस अध्ययन का नाम 'क्षुल्लकाचारकथा' दिया गया है । ' ८३ प्रस्तुत अध्ययन में अनाचारों की संख्या का उल्लेख नहीं हुआ है और न अगस्त्यसिंह स्थविर ने अपनी चूर्णि में और न जिनदासगणी महत्तर ने अपनी चूर्णि में संख्या का निर्देश किया है । समयसुन्दर ने दीपिका में अनाचारों की ५४ संख्या का निर्देश किया है । ४ यद्यपि अगस्त्यसिंह स्थविर ने संख्या का उल्लेख नहीं किया है तो भी उनके अनुसार अनाचारों की संख्या ५२ है, पर दोनों में अन्तर यह है कि अगस्त्यसिंह ने राजपिण्ड और किमिच्छक को व सैन्धव और लवण को पृथक्-पृथक् न मानकर एक-एक माना है। जिनदासगणी ने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक न मानकर अलग-अलग माना है तथा सैन्धव और लवण को एवं गात्राभ्यंग और विभूषण को एक-एक माना है। दशवैकालिक के टीकाकार आचार्य हरिभद्र ने तथा सुमति साधु सूरि ने अनाचारों की संख्या ५३ मानी है, उन्होंने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक तथा सैन्धव और लवण को पृथक्-पृथक् माना है। इस प्रकार अनाचारों की संख्या ५४, ५३ और ५२ प्राप्त होती है। संख्या में भेद होने पर भी तात्त्विक दृष्टि से कोई भेद नहीं है। अनाचारों का निरूपण संक्षेप में भी किया जा सकता है, जैसे सभी सचित्त वस्तुओं का परिहार एक माना जाए तो अनेक अनाचार स्वतः कम हो सकते हैं । जो बातें श्रमणों के लिए वर्ज्य हैं। वस्तुतः सभी अनाचार हैं। प्रस्तुत अध्ययन में बहुत से अनाचारों का उल्लेख नहीं है किन्तु अन्य आगमों में उन अनाचारों का उल्लेख हुआ है। भले ही वे बातें अनाचार के नाम से उल्लिखित न की गई हों, किन्तु वे बातें जो श्रमण के लिए त्याज्य हैं, अनाचार ही हैं । यहाँ एक बात का ध्यान रखना होगा कि कितने ही नियम उत्सर्गमार्ग में अनाचार हैं, पर अपवादमार्ग में वे अनाचार नहीं रहते, पर जो कार्य पापयुक्त हैं, जिनका हिंसा से साक्षात् सम्बन्ध है, वे कार्य प्रत्येक परिस्थिति में अनाचीर्ण ही हैं। जैसे- सचित्त भोजन, रात्रि भोजन आदि । जो नियम संयम-साधना की विशेष विशुद्धि के लिए बनाए हुए हैं, वे नियम अपवाद में अनाचीर्ण नहीं रहते। ब्रह्मचर्य की दृष्टि से गृहस्थ के घर पर बैठने का निषेध किया गया है। पर श्रमण रुग्ण हो, वृद्ध या तपस्वी हो तो वह विशेष परिस्थिति For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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