________________
दशवकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन *१३७४
भोगों का त्याग करता है, उसमें वैराग्य का अभाव होता है, वहाँ विवशता है, त्याग की उत्कट भावना नहीं। प्रस्तुत अध्ययन में कहा गया है-जीवन वह है जो विकारों से मुक्त हो। यदि विकारों का धुआँ छोड़ते हुए अर्ध-दग्ध कण्डे की तरह जीवन जीया जाए तो उस जीवन से तो मरना ही श्रेयस्कर है। एक क्षण भी जीओ-प्रकाश करते हुए जीओ किन्तु चिरकाल तक धुआँ छोड़ते हुए जीना उचित नहीं। अगन्धन जाति का सर्प प्राण गँवा देना पसन्द करेगा किन्तु परित्यक्त विष को पुनः ग्रहण नहीं करेगा। वैसे ही श्रमण परित्यक्त भोगों को पुनः ग्रहण नहीं करता है। विषवन्त जातक में इसी प्रकार का एक प्रसंग आया है-सर्प आग में प्रविष्ट हो जाता है किन्तु एक बार छोड़े हुए विष को पुनः ग्रहण नहीं करता। इस अध्ययन में भगवान अर्हत् अरिष्टनेमि के भ्राता रथनेमि का प्रसंग है जो गुफा में ध्यानमुद्रा में अवस्थित हैं, उसी गुफा में वर्षा से भीगी हुई राजीमती अपने भीगे हुए वस्त्रों को सुखाने लगी, राजीमती के अंग-प्रत्यंगों को निहारकर रथनेमि के भाव कलुषित हो गये। राजीमती ने काम-विह्वल रथनेमि को सुभाषित वचनों से संयम में सुस्थिर कर दिया। नियुक्तिकार का अभिमत है कि द्वितीय अध्ययन की विषय-सामग्री प्रत्याख्यानपूर्व की तृतीय वस्तु से ली गई है।८२ आचार और अनाचार
तृतीय अध्ययन में क्षुल्लक आचार का निरूपण है। जिस साधक में धृति का अभाव होता है वह आचार के महत्त्व को नहीं समझता, वह आचार को विस्मृत कर अनाचार की ओर कदम बढ़ाता है। जो आचार, मोक्ष-साधना के लिए उपयोगी है. जिस आचार में अहिंसा का प्राधान्य है, वह सही दृष्टि से आचार है और जिसमें इनका अभाव है वह अनाचार है। आचार के पालन से संयम-साधना में सुस्थिरता आती है। आचार-दर्शन मानव को परम शुभ प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करता है। कौन-सा आचरण औचित्यपूर्ण है और कौन-सा अनौचित्यपूर्ण है, इसका निर्णय विवेकी साधक अपनी बुद्धि की तराजू पर तौलकर करता है। जो प्रतिषिद्ध कर्म, प्रत्याख्यातव्य कर्म या अनाचीर्ण कर्म हैं, उनका वह परित्याग करता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य जो आचरणीय हैं उन्हें वह ग्रहण करता है। आचार धर्म या कर्त्तव्य है, अनाचार अधर्म या अकर्त्तव्य है। प्रस्तुत अध्ययन में अनाचीर्ण कर्म कहे गये हैं। अनाचीर्णों का निषेध कर आचार या चर्या का प्रतिपादन किया गया है। इसलिए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org