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________________ १३६ मूलसूत्र : एक परिशीलन अन्वेषणा की है । यही कारण है कि प्रत्येक परम्परा में धर्म की विविध व्याख्याएँ मिलती हैं । दशवैकालिक में धर्म की सटीक परिभाषा दी गई है- अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है । वही धर्म उत्कृष्ट मंगल रूप में परिभाषित किया गया है। वह धर्म विश्व-कल्याणकारक है। ७८ इस प्रकार लोक-मंगल की साधना में व्यक्ति के दायित्त्व की व्याख्या यहाँ पर की गई है। जिसका मन धर्म में रमा रहता है, उसके चरणों में ऐश्वर्यशाली देव भी नमन करते हैं । धर्म की परिभाषा के पश्चात् अहिंसक श्रमण को किस प्रकार आहार ग्रहण करना चाहिए, इसके लिए 'मधुकर' का रूपक देकर यह बताया है कि जैसे मधुकर पुष्पों से रस ग्रहण करता है वैसे ही श्रमणों को गृहस्थों के यहाँ से प्रासुक आहार-जल ग्रहण करना चाहिए । मधुकर फूलों को बिना म्लान किए थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, जिससे उसकी उदर- पूर्ति हो जाए । मधुकर दूसरे दिन के लिए संग्रह नहीं करता, वैसे ही श्रमण संयम - निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ग्रहण करता है, किन्तु संचय नहीं करता । मधुकर विविध फूलों से रस ग्रहण करता है, वैसे ही श्रमण विविध स्थानों से भिक्षा लेता है । इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में अहिंसा और उसके प्रयोग का निर्देश किया गया है । भर की उपमा जिस प्रकार दशवैकालिक में श्रमण के लिए दी गई है, उसी प्रकार बौद्ध साहित्य में भी यह उपमा प्राप्त है ७९ और वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी इस उपमा का उपयोग हुआ है । ८° ८० संयम में श्रम करने वाला साधक श्रमण की अभिधा से अभिहित है | श्रमण का भाव श्रमणत्व या श्रामण्य कहलाता है। बिना धृति के श्रामण्य नहीं होता, धृति पर ही श्रामण्य का भव्य प्रासाद अवलम्बित है। जो धृतिमान् होता है, वही कामराग का निवारण करता है। यदि अन्तर्मानस में कामभावनाएँ अँगड़ाइयाँ ले रही हैं, विकारों के सर्प फन फैलाकर फूत्कारें मार रहे हैं, तो वहाँ श्रमणत्व नहीं रह सकता । रथनेमि की तरह जिसका मन विकारी है और विषय - सेवन के लिए ललक रहा है वह केवल द्रव्य - साधु है, भाव- साधु नहीं। इस प्रकार के श्रमण भर्त्सना के योग्य हैं । जब रथनेमि भटकते हैं और भोग की अभ्यर्थना करते हैं तो राजीमती संयम में स्थिर करने हेतु उन्हें धिक्कारती है। काम और श्रामण्य का परस्पर विरोध है । जहाँ काम है, वहाँ श्रामण्य का अभाव है। त्यागी वह कहलाता है जो स्वेच्छा से भोगों का परित्याग करता है । जो परवशता से 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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