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दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १३५ *
नौवाँ अध्ययन गद्य-पद्यात्मक है, शेष सभी अध्ययन पद्यात्मक हैं। टीकाकार के अभिमतानुसार दशवैकालिक के पद्यों की संख्या ५०९ है और चूलिकाओं की गाथा संख्या ३४ है। चूर्णिकार ने दशवैकालिक की पद्य संख्या ५३६ और चूलिकाओं की पद्य संख्या ३३ बताई है। पुण्यविजय जी म. द्वारा संपादित 'दसकालियसुत्तं' में दशवैकालिक की गाथाएँ ५७५ बताई हैं।६७ मुनि कन्हैयालाल जी 'कमल' ने दशवैकालिक-संक्षिप्तदर्शन में लिखा है 'इसमें पद्यसूत्र गाथाएँ ५६१ हैं और गद्यसूत्र ४८ हैं।'६८ आचार्य तुलसी६९ ने 'दसवेआलियं' ग्रन्थ की भूमिका में दशवैकालिक की श्लोक संख्या ५१४ तथा सूत्र संख्या ३१ लिखी है। इस प्रकार विभिन्न ग्रन्थों में गाथा संख्या और सूत्र संख्या में अन्तर है। धर्म : एक चिन्तन
दशवैकालिक का प्रथम अध्ययन 'द्रुमपुष्पिका' है। धर्म क्या है? यह चिर-चिन्त्य प्रश्न रहा है। इस प्रश्न पर विश्व के मूर्धन्य मनीषियों ने विविध दृष्टियों से चिन्तन किया है। आचारांग में स्पष्ट कहा है कि तीर्थंकर की आज्ञाओं के पालन में धर्म है।७० मीमांसादर्शन के अनुसार वेदों की आज्ञा का पालन ही धर्म है। आचार्य मनु ने लिखा है-राग-द्वेष से रहित सज्जन विज्ञों द्वारा जो आचरण किया जाता है और जिस आचरण को हमारी अन्तरात्मा सही समझती है, वह आचरण धर्म है।७२ महाभारत में धर्म की परिभाषा इस प्रकार प्राप्त हैजो प्रजा को धारण करता है अथवा जिससे समस्त प्रजा यानि समाज का संरक्षण होता है, वह धर्म है। ३ आचार्य शुभचन्द्र ने धर्म को भौतिक और
आध्यात्मिक अभ्युदय का साधन माना है। आचार्य कार्तिकेय ने वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है,७५ जिससे स्वभाव में अवस्थिति और विभाव दशा का परित्याग होता है। चूँकि स्व-स्वभाव से ही हमारा परम श्रेय सम्भव है और इस दृष्टि से वही धर्म है। धर्म का लक्षण आत्मा का जो विशुद्ध स्वरूप है और जो आदि, मध्य, अन्त सभी स्थितियों में कल्याणकारी है वह धर्म है।६ वैशेषिकदर्शन का मन्तव्य है-जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि होती है वह धर्म है।०७
इस प्रकार भारतीय मनीषियों ने धर्म की विविध दृष्टियों से व्याख्या की है, तथापि उनकी यह विशेषता रही है कि उन्होंने किसी एकांकी परिभाषा पर ही बल नहीं दिया, किन्तु धर्म के विविध पक्षों को उभारते हुए उनमें समन्वय की
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