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* १४२ - मूलसूत्र : एक परिशीलन
अनाचारों का उल्लेख अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए हुआ है। __नियुक्तिकार की दृष्टि से दशवैकालिक का तृतीय अध्ययन नौवें पूर्व की तृतीय आचारवस्तु से उद्धृत है।८ महाव्रत : विश्लेषण
चतुर्थ अध्ययन में षड्जीवनिकाय का निरूपण है। आचार-निरूपण के पश्चात् पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस आदि जीवों का विस्तार से निरूपण है। जैनधर्म में अहिंसा का बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण है। विश्व के अन्य विचारकों ने पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि में जहाँ जीव नहीं माने हैं, वहाँ जैन परम्परा में उनमें जीव मानकर उनके विविध भेद-प्रभेदों का भी विस्तार से कथन है। श्रमण साधक विश्व में जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं उनकी हिंसा से विरत होता है। श्रमण न स्वयं हिंसा करता है, न हिंसा करवाता है
और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन ही करता है। श्रमण हिंसा क्यों नहीं करता? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है-हिंसा से और दूसरों को नष्ट करने के संकल्प से उस प्राणी को तो पीड़ा पहुँचती ही है साथ ही स्वयं के आत्म-गुणों का भी हनन होता है। आत्मा कर्मों से मलिन बनता है। यही कारण है कि प्रश्नव्याकरण में हिंसा का एक नाम गुणविराधिका मिलता है। श्रमण अहिंसा महाव्रत का पालन करता है। इसकी संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत अध्ययन में है। संयमी श्रमण तीन करण और तीन योग से सचित्त पृथ्वी आदि को न स्वयं नष्ट करे और न सचित्त पृथ्वी पर बैठे और न सचित्त धूल से सने हुए आसन का उपयोग करे। वह अचित्त भूमि पर आसन आदि को प्रमार्जित कर बैठे। संयमी श्रमण सचित्त जल का भी उपयोग न करे, किन्तु उष्ण जल या अचित्त जल का उपयोग करे। किसी भी प्रकार की अग्नि को साधु स्पर्श न करे और न अग्नि को सुलगावे और न बुझावे। इसी प्रकार श्रमण हवा भी न करे, दूध आदि को
क से ठण्डा न करे। श्रमण तृण, वृक्ष, फल, फूल, पत्ते आदि को न तोड़े, न काटे और न उस पर बैठे। श्रमण स्थावर जीवों की तरह त्रस प्राणियों की भी हिंसा मन, वचन और काया से न करे। वह जो भी कार्य करे वह विवेकपूर्वक करे। इतना सावधान रहे कि किसी भी प्रकार की हिंसा न हो। सभी प्रकार के जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है। श्रमण स्व और पर दोनों ही प्रकार की हिंसा से मुक्त होता है। काम, क्रोध, मोह प्रभृति दूषित मनोवृत्तियों के द्वारा
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