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________________ * १३२ मूलसूत्र : एक परिशीलन जयधवला ५० में दशवैकालिक को सातवाँ अंग बाह्य श्रुत लिखा है । यापनीय संघ में दशवैकालिकसूत्र का अध्ययन अच्छी तरह से होता था । यापनीय संघ के सुप्रसिद्ध आचार्य अपराजितसूरि ने भगवती आराधना की विजयोदया वृत्ति में दशवैकालिक की गाथाएँ प्रमाण रूप में उद्धृत की हैं । ५१ यहाँ पर यह भी स्मरण रखना होगा कि दशवैकालिकसूत्र की जब अत्यधिक लोकप्रियता बढ़ी तो अनेक श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में दशवैकालिक की गाथाओं को उद्धरण के रूप में उट्टङ्कित किया । उदाहरणार्थ - आवश्यक निर्युक्ति, ५२ निशीथचूर्णि, ५३ उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति' १४ और उत्तराध्ययनचूर्णि५५ आदि ग्रन्थों को देखा जा सकता है। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में दशवैकालिक का उल्लेख व वर्णन होने पर भी पं. नाथूराम प्रेमी ने लिखा है कि आरातीय आचार्यकृत दशवैकालिक आज उपलब्ध नहीं है और जो उपलब्ध है वह प्रमाण रूप नहीं है । १६ दिगम्बर परम्परा में यह सूत्र कब तक मान्य रहा, इसका स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। हमारी दृष्टि से जब दोनों परम्पराओं में वस्त्रादि को लेकर आग्रह उग्र रूप में हुआ, तब दशवैकालिक में वस्त्र का उल्लेख मुनियों के लिए होने से उसे अमान्य किया होगा । नामकरण प्रस्तुत आगम के 'दसवेयालिय' (दशवैकालिक) और 'दसवेकालिय ' ५८ ये दो नाम उपलब्ध होते हैं। यह नाम दस और वैकालिक अथवा कालिक इन दो पदों से निर्मित है। सामान्यतः दस शब्द दस अध्ययनों का सूचक है और वैकालिक का सम्बन्ध रचना - निर्यूहण या उपदेश से है । विकाल का अर्थ संध्या है । सामान्य नियम के अनुसार आगम का रचनाकाल पूर्वाह्न माना जाता है किन्तु आचार्य शय्यम्भव ने मनक की अल्पायु को देखकर अपराह्न में ही इसकी रचना या निर्यूहण प्रारम्भ किया और उसे विकाल में पूर्ण किया। ऐसी भी मान्यता है कि दस विकालों या संध्याओं में रचना - निर्यूहण या उपदेश किया गया, इस कारण यह आगम 'दशवैकालिक' कहा जाने लगा। स्वाध्याय का काल दिन और रात में प्रथम और अन्तिम प्रहर है । प्रस्तुत आगम बिना काल (विकाल) में भी पढ़ा जा सकता है। अतः इसका नाम दशवैकालिक रखा गया है । अथवा आचार्य शय्यम्भव चतुर्दशपूर्वी थे, उन्होंने काल को लक्ष्य कर इसका निर्माण किया, इसलिए इसका नाम दशवैकालिक रखा गया है। एक कारण यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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