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दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन १३१
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सातवें अध्ययन का मूल स्रोत आचारांग १/१/६/५ में प्राप्त होता है। आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन का नाम भाषाजात है, अध्ययन में श्रमण द्वारा प्रयोग करने योग्य और न करने योग्य भाषा का विश्लेषण है। संभव है इस आधार से सातवें अध्ययन में विषय-वस्तु की अवतारणा हुई हो। आठवें अध्ययन का कुछ विषय स्थानांग ८/५९८, ६०९, ६१५, आचारांग और सूत्रकृतांग से भी तुलनीय है। ४५ नौवें अध्ययन में विनयसमाधि का निरूपण है । इस अध्ययन की सामग्री उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन की सामग्री से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। संभव है इस अध्ययन का मूल स्रोत उत्तराध्ययन का प्रथम अध्ययन रहा हो। दसवें अध्ययन में भिक्षु के जीवन और उसकी दैनन्दिनी चर्या का चित्रण है, तो उत्तराध्ययन का पन्द्रहवाँ अध्ययन भी इसी बात पर प्रकाश डालता है। अतः संभव है यह अध्ययन उत्तराध्ययन के पन्द्रहवें अध्ययन का ही रूपान्तरण हो, क्योंकि भाव के साथ ही शब्द - रचना और छन्द-गठन में भी दोनों में प्रायः एकरूपता है ।
आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पहली चूला, १ व ४ अध्ययन से क्रमशः ५ और ७वें अध्ययन की तुलना की जा सकती है । दशवैकालिक के २, ९ व १० वें अध्ययन के विषय की उत्तराध्ययन के १ और १५ वें अध्ययन से ४६ तुलना कर सकते हैं।
दिगम्बर परम्परा में दशवैकालिक का उल्लेख धवला, जयधवला, तत्त्वार्थराजवर्तिक, तत्त्वार्थश्रुतसागरीया वृत्ति प्रभृति अनेक स्थलों में हुआ है और 'आरातीयैराचार्यैर्निर्यूढं केवल इतना संकेत प्राप्त होता है।
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सर्वार्थसिद्धि में लिखा है - जब कालदोष से आयु, मति और बल न्यून हुए, तब शिष्यों पर अत्यधिक अनुग्रह करके आरातीय आचार्यों ने दशवैकालिक प्रभृति आगमों की रचना की। एक घड़ा क्षीरसमुद्र के जल से भरा हुआ है, घड़े में अपना स्वयं का कुछ भी नहीं है । उसमें जो कुछ भी है वह क्षीरसमुद्र का ही है। यही कारण है कि उस घड़े के जल में भी वही मधुरता होती है जो क्षीरसमुद्र के जल में होती है। इसी प्रकार जो आरातीय आचार्य किसी विशिष्ट कारण से पूर्व - साहित्य में से या अंग- साहित्य में से अंग बाह्य श्रुत की रचना करते हैं, उसमें उन आचार्यों का अपना कुछ भी नहीं होता । वह तो अंगों से गृहीत होने के कारण प्रामाणिक माना जाता है। '
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आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य " में, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसार ९ में दशवैकालिक को अंग बाह्य श्रुत लिखा है । वीरसेनाचार्य ने
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