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* १३०* मूलसूत्र : एक परिशीलन
निर्वाण ७२ में दशवैकालिक की रचना होना ऐतिहासिक दृष्टि से उपयुक्त प्रतीत होता है। यहाँ पर जो उन्हें आचार्य लिखा है, वह द्रव्यनिक्षेप की दृष्टि से है। दशवैकालिक एक नि!हण-रचना है
रचना के दो प्रकार हैं-एक स्वतन्त्र और दूसरा नि¥हण। दशवैकालिक स्वतन्त्र कृति नहीं है अपितु नि!हण कृति है। दशवैकालिकनियुक्ति के अनुसार आचार्य शय्यम्भव ने विभिन्न पूर्वो से इसका निर्वृहण किया। चतुर्थ अध्ययन आत्म-प्रवाद पूर्व से, पाँचवाँ अध्ययन कर्म-प्रवाद पूर्व से, सातवाँ अध्ययन सत्य-प्रवाद पूर्व से और अवशेष सभी अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से उद्धृत किए गए हैं। ३
दूसरा मन्तव्य यह है कि दशवैकालिक का निर्वृहण गणिपिटक द्वादशांगी से किया गया है। यह निर्वृहण किस अध्ययन का किस अंग से किया गया इसका स्पष्ट निर्देश नहीं है, तथापि मूर्धन्य मनीषियों ने अनुमान किया है कि दशवैकालिक के दूसरे अध्ययन में विषय-वासना से बचने का उपदेश दिया गया है, उस संदर्भ में रथनेमि और राजीमती का पावन प्रसंग भी बहुत ही संक्षेप में दिया गया है। उत्तराध्ययन के बाईसवें अध्ययन में यह प्रसंग बहुत ही विस्तार के साथ आया है। दोनों का मूल स्वर एक सदृश है। तृतीय अध्ययन का विषय सूत्रकृताङ्ग १/९ से मिलता है। चतुर्थ अध्ययन का विषय सूत्रकृतांङ्ग १/११/७-८ और आचारांग १/१/१; २/१५ से कहीं पर संक्षेप में और कहीं पर विस्तार से लिया गया है। आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के उत्तरार्द्ध में भगवान महावीर द्वारा गौतम आदि श्रमणों को उपदिष्ट किए गए पाँच महाव्रतों तथा पृथ्वीकाय प्रभृति षड्जीवनिकाय का विश्लेषण है। संभव है इस अध्ययन से चतुर्थ अध्ययन की सामग्री का संकलन किया गया हो। पाँचवें अध्ययन का विषय आचारांग के द्वितीय अध्ययन लोकविजय के पाँचवें उद्देशक और
आठवें, नौवें अध्ययन के दूसरे उद्देशक से मिलता-जुलता है। यह भी संभव है कि आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का प्रथम अध्ययन पिण्डैषणा है अतः पाँचवाँ अध्ययन उसी से संकलित किया गया हो। छठा अध्ययन समवायाङ्ग के अठारहवें समवाय की निम्न गाथा का विस्तार से निरूपण है
"वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं। परियंक निसिज्जा य, सिणाणं सोभवजणं॥"
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