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________________ दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन १३३ - भी हो सकता है कि इसका दसवाँ अध्ययन वैतालिक नाम के वृत्त में हुआ है, अतः इसका नाम दसवेतालियं भी संभव है । .५९ हम यह लिख चुके हैं कि आचार्य शय्यम्भव ने अपने बालपुत्र मनक के लिए दशवैकालिक का निर्माण किया । मनक ने दशवैकालिक को छह महीने में पढ़ा, श्रुत और चारित्र की सम्यक् आराधना कर वह संसार से समाधिपूर्वक आयु पूर्ण कर स्वर्गस्थ हुआ । आचार्य शय्यम्भव ने संघ से पूछा - " अब इस निर्यूढ़ आगम का क्या किया जाये ?" संघ ने गहराई से चिन्तन करने के बाद निर्णय किया कि इसे ज्यों का त्यों रखा जाय । यह आगम मनक - जैसे अनेक श्रमणों की आराधना का निमित्त बनेगा । इसलिए इसका विच्छेद न किया जाय । प्रस्तुत निर्णय के पश्चात् दशवैकालिक का जो वर्तमान रूप है उसे अध्ययन-क्रम से संकलित किया गया है। महानिशीथ के अभिमतानुसार पाँचवें आरे के अन्त में पूर्ण रूप से अंग- साहित्य विच्छिन्न हो जायेगा तब दुप्पसह मुनि दशवैकालिक के आधार पर संयम की साधना करेंगे और अपने जीवन को पवित्र बनायेंगे । ६१ ६० चूलिका के रचयिता कौन ? दस अध्ययनों और दो चूलिकाओं में यह आगम विभक्त है । चूलिका का अर्थ शिखा या चोटी है। छोटी चूला (चूडा) को चूलिका कहा गया है, यह चूलिका का सामान्य शब्दार्थ है । साहित्यिक दृष्टि से चूलिका का अर्थ मूलशास्त्र का उत्तर भाग है। यही कारण है कि अगस्त्यसिंह स्थविर ने और जिनदासगणी महत्तर ने दशवैकालिक की चूलिका को उसका 'उत्तर-तंत्र' कहा है। तंत्र, सूत्र और ग्रन्थ ये सभी शब्द एकार्थक हैं। जो स्थान आधुनिक युग के ग्रन्थ में परिशिष्ट का है, वही स्थान अतीतकाल में चूलिका का था । निर्युक्तिकार की दृष्टि से मूलसूत्र में अवर्णित अर्थ का और वर्णित अर्थ का स्पष्टीकरण करना चूलिका का प्रयोजन है | आचार्य शीलांक के अनुसार चूलिका का अर्थ अग्र है और अग्र का अर्थ उत्तर भाग है। दस अध्ययन संकलनात्मक हैं, किन्तु चूलिकाओं के सम्बन्ध में मूर्धन्य मनीषियों में दो विचार हैं। कितने ही विज्ञों का यह अभिमत है कि वे आचार्य शय्यम्भवकृत हैं। दस अध्ययनों के निर्यूहण के पश्चात् उन्होंने चूलिकाओं की रचना की । सूत और चूलिकाओं की भाषा प्रायः एक सदृश है इसलिए अध्ययन और चूलिकाओं के रचयिता एक ही व्यक्ति हैं। कितने ही विज्ञ इस अभिमत से सहमत नहीं हैं । उनका अभिमत है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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