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________________ * १२८* मूलसूत्र : एक परिशीलन हो सकता था। जब दशवैकालिक का निर्माण हो गया तो उसके पिण्डैषणा नामक पाँचवें अध्ययन को जानने व पढ़ने वाला पिण्डकल्पी होने लगा। यह वर्णन दशवैकालिक के महत्त्व को स्पष्ट रूप से उजागर करता है।२८ दशवैकालिक के रचनाकार का परिचय प्रस्तुत आगम के कर्ता आचार्य शय्यम्भव हैं। वे राजगृह नगर के निवासी थे। वत्स गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म वीर निर्वाण ३६ (विक्रम पूर्व ४३४) में हुआ। वे वेद और वेदांग के विशिष्ट ज्ञाता थे। जैनशासन के प्रबल विरोधी थे। जैनधर्म के नाम से ही उनकी आँखों से अंगारे बरसते थे। जैनधर्म के प्रबल विरोधी प्रकाण्ड विद्वान् शय्यम्भव को प्रतिबोध देने के लिए आचार्य प्रभव के आदेश से दो श्रमण शय्यम्भव के यज्ञवाट में गए और धर्मलाभ कहा। श्रमणों का घोर अपमान किया गया। उन्हें बाहर निकालने का उपक्रम किया गया। श्रमणों ने कहा-“अहो कष्टमहो कष्टं तत्त्वं विज्ञायते न हि।" अहो ! खेद की बात है, तत्त्व नहीं जाना जा रहा। श्रमणों की बात शय्यम्भव के मस्तिष्क में टकराई पर उन्होंने सोचा-'यह उपशान्त तपस्वी झूठ नहीं बोलते।२९ हाथ में तलवार लेकर वह अपने अध्यापक के पास पहुँचा और बोला-"तत्त्व का स्वरूप बताओ, यदि नहीं बताओगे तो मैं तलवार से तुम्हारा शिरच्छेद कर दूंगा।" लपलपाती तलवार को देखकर अध्यापक काँप उठा। उसने कहा"अर्हत् धर्म ही यथार्थ धर्म और तत्त्व है।" शय्यम्भव अभिमानी होने पर भी सच्चे जिज्ञासु थे। वे आचार्य प्रभव के पास पहुंचे। उनकी पीयूषसावी वाणी से बोध प्राप्त कर दीक्षित हुए। आचार्य प्रभव के पास उन्होंने १४ पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया और श्रुतधर परम्परा में वे द्वितीय श्रुतधर हुए। __ जब शय्यम्भव दीक्षित हुए तब उनकी पत्नी गर्भवती थी।३० ब्राह्मण वर्ग कहने लगा-"शय्यम्भव बहुत ही निष्ठर व्यक्ति है जो अपनी युवती पत्नी का परित्याग कर साधु बन गया।"३१ स्त्रियाँ शय्यम्भव की पत्नी से पूछती-“क्या तुम गर्भवती हो?'' वह संकोच से 'मणयं' अर्थात् 'मणाक' शब्द का प्रयोग करती। इस छोटे से उत्तर से परिवार वालों को संतोष हुआ। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का नाम माता द्वारा उच्चरित 'मणयं' शब्द के आधार पर 'मनक' रखा गया।३२ वह बहुत ही स्नेह से पुत्र मनक का पालन करने लगी। बालक आठ वर्ष का हुआ। उसने अपनी माँ से पूछा-“मेरे पिता का नाम क्या है ?'' उसने सारा वृत्त सुना दिया कि तेरे पिता जैन-मुनि बने और वर्तमान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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