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दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
१२७ गया तो सर्वप्रथम दशवैकालिक का अध्ययन कराया जाने लगा और उसके पश्चात् उत्तराध्ययनसूत्र पढ़ाया जाने लगा । १५
पहले आचारांग के शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन से शैक्षिकी उपस्थापना की जाती थी, जब दशवैकालिक की रचना हो गई तो उसके चतुर्थ अध्ययन से उपस्थापना की जाने लगी । १६
मूलसूत्रों की संख्या के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है । तथापि यह पूर्ण सत्य है कि सभी विज्ञों ने दशवैकालिक को मूलसूत्र माना है। चाहे समयसुन्दरगणी १७ हों, चाहे भावप्रभसूरि १८ हों, चाहे प्रो. वेबर और प्रो. वूलर हों, चाहे डॉ. शर्पेण्टियर या डॉ. विण्टरनित्ज हों, चाहे डॉ. गेरिनो या डॉ. शुब्रिंग हों - सभी ने प्रस्तुत आगम को मूलसूत्र माना है । १९
दशवैकालिक का महत्त्व
यह आगम
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मूल आगमों में दशवैकालिक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्य देववाचक ने आवश्यक व्यतिरिक्त के कालिक और उत्कालिक ये दो भेद किए हैं। उन भेदों में उत्कालिक आगमों की सूची में दशवैकालिक प्रथम है । २२ अस्वाध्याय समय को छोड़कर सभी प्रहरों में पढ़ा जा सकता है। चार अनुयोगों में दशवैकालिक का समावेश चरणकरणानुयोग में किया जा सकता है। यह नियुक्तिकार द्वितीय भद्रबाहु " और अगस्त्यसिंह स्थविर २२ का अभिमत है। इसमें चरण २३ (मूलगुण) व करण (उत्तरगुण) इन दोनों का अनुयोग है । आचार्य वीरसेन के अभिमतानुसार दशवैकालिक आचार और गोचर की विधि का वर्णन करने वाला सूत्र है । २५ ज्ञानभूषण के प्रशिष्य शुभचन्द्र के अभिमतानुसार दशवैकालिक का विषय गोचरविधि और पिण्डविशुद्धि है । २६ आचार्यल श्रुतसागर के अनुसार इसे वृक्ष - कुसुम आदि का भेदकथक और यतियों के आचार का कथक कहा है। २७
दशवैकालिक में आचार - गोचर के विश्लेषण के साथ ही जीव - विद्या, योग-विद्या जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा भी की गई है। यही कारण है इस आगम की रचना होने के पश्चात् अध्ययन - क्रम में भी आचार्यों ने परिवर्तन किया, जैसा कि हम पूर्व लिख चुके हैं।
व्यवहारभाष्य के अनुसार अतीतकाल में आचारांग के द्वितीय लोकविजय अध्ययन के ब्रह्मचर्य नामक पाँचवें उद्देशक के आमगंध सूत्र को बिना जाने - पढ़े कोई भी श्रमण और श्रमणी पिण्डकल्पी अर्थात् भिक्षा ग्रहण करने योग्य नहीं
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