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________________ * १२६ * मूलसूत्र : एक परिशीलन और व्याख्याएँ हैं। उत्तराध्ययन और दशवैकालिक पर विपुल व्याख्यात्मक साहित्य है, इसलिए इन आगमों को मूलसूत्र कहा गया है। टीकाकारों ने मूल ग्रन्थ के अर्थ में मूलसूत्र का प्रयोग किया है, संभव है उसी से यह आगम मूलसूत्र कहे जाने लगे हों। __पाश्चात्य मूर्धन्य मनीषियों ने मूलसूत्र की अभिधा के लिए जो कल्पनाएँ की हैं, उनके पीछे किसी अपेक्षा का आधार अवश्य है, पर जब हम गहराई से चिन्तन करते हैं तो उनकी कल्पना पूर्ण रूप से सही नहीं लगती। प्रो. शर्पेण्टियर ने भगवान महावीर के मूल शब्दों के साथ मूलसूत्रों को जोड़ने का जो समाधान किया है, वह उत्तराध्ययन के साथ कदाचित् संगत हो तो भी दशवैकालिक के साथ उसकी संगति बिल्कुल नहीं है। यदि हम भगवान महावीर के साक्षात् वचनों के आधार पर 'मूलसूत्र' मानते हैं तो आचारांग, सूत्रकृतांग प्रभृति अंग ग्रन्थ, जिनका सम्बन्ध सीधा गणधरों से रहा है, मूलसूत्र कहे जाने चाहिए। पर ऐसा नहीं है, इसलिए प्रो. शर्पेण्टियर की कल्पना घटित नहीं होती। डॉ. वाल्टर शुबिंग के मतानुसार मूलसूत्र के लिए श्रमणों के मूल नियम, परम्पराओं एवं विधि-निषेधों की दृष्टि से मूलसूत्र की अभिधा दी गई। पर यह समाधान भी पूर्ण रूप से सही नहीं। दशवैकालिक में तो यह बात मिलती है पर अन्य मूलसूत्र में अनेक दृष्टान्तों से जैन धर्म-दर्शन सम्बन्धी अनेक पहलुओं पर विचार किया गया है। इसलिए डॉ. शुब्रिग का चिन्तन भी एकांगी पहलू पर ही आधृत है। प्रो. गेरिनो ने मूल और टीका के आधार पर 'मूलसूत्र' अभिधा की कल्पना की है, पर उनकी यह कल्पना बहुत ही स्थूल है। इस कल्पना में चिन्तन की गहराई का अभाव है। मूलसूत्रों के अतिरिक्त अन्य आगमों पर भी अनेक टीकाएँ हैं। उन टीकाओं के आधार से ही किसी आगम को मूलसूत्र की संज्ञा दी गई हो तो वे सभी आगम 'मूलसूत्र' कहे जाने चाहिए। ___ हमारी दृष्टि से जिन आगमों में मुख्य रूप से श्रमण के आचार सम्बन्धी मूल गुणों-महाव्रत, समिति, गुप्ति, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि का निरूपण है और जो श्रमण-जीवनचर्या में मूल रूप से सहायक बनते हैं और जिन आगमों का अध्ययन सर्वप्रथम अपेक्षित है, उन्हें मूलसूत्र कहा गया है। हमारे प्रस्तुत कथन का समर्थन इस बात से होता है कि पहले श्रमणों का अध्ययन आचारांग से प्रारम्भ होता था। जब दशवैकालिकसूत्र का निर्माण हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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