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________________ दशवकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १२५ * -.-.-.-.-.-.-. का प्रयोग हुआ है और न ही मूल और छेद शब्दों का ही। वहाँ पर अंग और अंगबाह्य शब्द आया है। तत्त्वार्थभाष्य में सर्वप्रथम अंगबाह्य आगम के अर्थ में उपांग शब्द का प्रयोग हुआ है। उसके पश्चात् सुखबोधा समाचारी,° विविधमार्गप्रपा,१ वायनाविही१२ आदि में उपांग विभाग का उल्लेख है। किन्तु मूल और छेदसूत्रों का विभाग किस समय हुआ, यह अभी अन्वेषणीय है। दशवैकालिक की नियुक्ति, चूर्णि, हारिभद्रीया वृत्ति और उत्तराध्ययन की शान्त्याचार्यकृत बृहद्वृत्ति में मूलसूत्र के सम्बन्ध में कुछ भी चर्चा नहीं है। इससे स्पष्ट है कि ग्यारहवीं शताब्दी तक ‘मूलसूत्र' यह विभाग नहीं हुआ था। विक्रम संवत् १३३४ में प्रभावकचरित्र ३ में सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल और छेद यह विभाग प्राप्त होता है। इसके बाद 'समाचारी-शतक' में भी उपाध्याय समयसुन्दरगणी ने इसका उल्लेख किया है। मूलसूत्र संज्ञा क्यों ? दशवैकालिक और उत्तराध्ययन आदि की मूलसूत्र संज्ञा क्यों दी गई है ? इस सम्बन्ध में विज्ञों में विभिन्न मत हैं। पाश्चात्य विज्ञों ने भारतीय साहित्य का जिस गहराई, रुचि और अध्यवसाय से अध्ययन किया है वह वस्तुतः प्रशंसनीय है। कार्य किस सीमा तक हुआ है ? कितना उपादेय है ? यह प्रश्न अलग है, पर उन्होंने कठिन श्रम और उत्साह के साथ जो प्रयत्न किया है, वह भारतीय चिन्तकों के लिए प्रेरणादायी है। जर्मनी के सुप्रसिद्ध प्राच्य अध्येता प्रो. शर्पेण्टियर ने उत्तराध्ययनसूत्र की प्रस्तावना में लिखा है कि मूलसूत्र में भगवान महावीर के मूल शब्द संगृहीत हैं जो स्वयं भगवान महावीर के मुख से निसृत हैं।४ __सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ. वाल्टर शुबिंग ने Lax Religion Dyaina (जर्मन भाषा में लिखित) पुस्तक में लिखा है कि मूलसूत्र नाम इसलिए दिया गया ज्ञात होता है कि श्रमण और श्रमणियों के साधनामय जीवन के मूल मेंप्रारम्भ में उनके उपयोग के लिए इनका निर्माण हुआ। इटली के प्रो. गेरिनो ने एक विचित्र कल्पना की है। उस कल्पना के पीछे उनके मस्तिष्क में ग्रन्थ के 'मूल' और 'टीका' ये दो रूप मुख्य रहे हैं। इसलिए उन्होंने मूल ग्रन्थ के रूप में मूलसूत्र को माना है क्योंकि इन आगम-ग्रन्थों पर नियुक्ति, चूर्णि, टीका आदि विपुल व्याख्यात्मक साहित्य है। व्याख्या-साहित्य में यत्र-तत्र मूल शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसकी वे टीकाएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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