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________________ *१००* मूलसूत्र : एक परिशीलन हैं। विनयहंस ने उत्तराध्ययन पर एक वृत्ति का निर्माण किया। विनयहंस कहाँ के थे? यह अन्वेषणीय है। संवत् १५५२ में कीर्तिवल्लभ ने, संवत् १५५४ में उपाध्याय कमलसंयत ने, संवत् १५५० में तपोरन वाचक, गुणशेखर तथा लक्ष्मीवल्लभ ने, संवत् १६८९ में भावविजय तथा हर्षनन्दगणी ने, संवत् १७५० में उपाध्याय धर्ममन्दिर ने, संवत् १५४६ में उदयसागर, मुनिचन्द्रसूरि, ज्ञानशीलगणी, अजितचन्द्रसूरि, राजशील, उदयविजय, मेघराज वाचक, नगरसीगणी, अजितदेवसूरि, माणक्यशेखर, ज्ञानसागर आदि अनेक मनीषियों ने उत्तराध्ययन पर संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखीं। उनमें से कितनीक टीकाएँ विस्तृत हैं तो कितनी ही संक्षिप्त हैं। कितनी टीकाओं में विषय को सरल व सुबोध बनाने के लिए प्रसंगानुसार कथाओं का भी उपयोग किया गया है। लोकभाषाओं में अनुवाद और व्याख्याएँ संस्कृत प्राकृत भाषाओं की टीकाओं के पश्चात् विविध लोकभाषाओं में संक्षिप्त टीकाओं का युग प्रारम्भ हुआ। संस्कृत भाषा की टीकाओं में विषय को सरल व सुबोध बनाने का प्रयास हुआ था, साथ ही उन टीकाओं में जीव, जगत्, आत्मा, परमात्मा, द्रव्य आदि की दार्शनिक गम्भीर चर्चाएँ होने के कारण जन-सामान्य के लिए उन्हें समझना बहुत ही कठिन था। अतः लोकभाषाओं में सरल और सुबोध शैली में बालावबोध की रचनाएँ प्रारम्भ हुईं। बालावबोध के रचयिताओं में पार्श्वचन्द्रगणी और आचार्य मुनि धर्मसिंह जी का नाम आदर के साथ लिया जा सकता है। __बालावबोध के बाद आगमों के अनुवाद अंग्रेजी, गुजराती और हिन्दी इन तीन भाषाओं में मुख्य रूप से हुए हैं। जर्मन विद्वान् डॉ. हरमन जैकोबी ने चार आगमों का अंग्रेजी में अनुवाद किया, उनमें उत्तराध्ययन भी एक है। वह अनुवाद सन् १८९५ में ऑक्सफोर्ड से प्रकाशित हुआ। उसके पश्चात् वही अनुवाद सन् १९६४ में मोतीलाल बनारसीदास (दिल्ली) ने प्रकाशित किया। अंग्रेजी प्रस्तावना के साथ उत्तराध्ययन जार्ल चारपेण्टियर, उप्पसाला ने सन् १९२२ में प्रकाशित किया। सन् १९५४ में आर. डी. वाडेकर और वैद्य पूना द्वारा मूल ग्रन्थ प्रकाशित हुआ। सन् १९३८ में गोपालदास जीवाभाई पटेल ने गुजराती छायानुवाद, सन् १९३४ में हीरालाल हंसराज (जामनगर वालों) ने अपूर्ण गुजराती अनुवाद प्रकाशित किया। सन् १९५२ में गुजरात विद्यासभा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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