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________________ उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ९९ चौथे अध्ययन में जीव- प्रकरण पर विचार करते हुए जीव-भावकरण के श्रुतकरण और नो- श्रुतकरण ये दो भेद किये गये हैं । पुनः श्रुतकरण के बद्ध और अबद्ध ये दो भेद हैं। बद्ध के निशीथ और अनिशीथ ये दो भेद हैं। उनके भी लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद किये गये हैं । निशीथसूत्र आदि लोकोत्तर निशीथ है और बृहदारण्यक आदि लौकिक निशीथ हैं। आचारांग आदि लोकोत्तर अनिशीथ श्रुत हैं । पुराण आदि लौकिक अनिशीथ श्रुत हैं । लौकिक और लोकोत्तर भेद से अबद्ध श्रुत के भी दो प्रकार हैं । अबद्ध श्रुत के लिए अनेक कथाएँ दी गई हैं । प्रस्तुत टीका में विशेषावश्यकभाष्य, उत्तराध्ययनचूर्णि आवश्यकचूर्णि सप्तशतारनयचक्र, निशीथ, बृहदारण्यक, उत्तराध्ययनभाष्य, स्त्रीनिर्वाणसूत्र आदि ग्रन्थों के निर्देश हैं। साथ ही जिनभद्र, भर्तृहरि, वाचक सिद्धसेन, वाचक अश्वसेन, वात्स्यायल, शिव शर्मन, हारिल्लवाचक, गंधहस्तिन्, जिनेन्द्रबुद्धि प्रभृति व्यक्तियों के नाम भी आये हैं । वादीवैताल शान्तिसूरि का समय विक्रम की ग्यारहवीं शती है । सुखबोधावृत्ति उत्तराध्ययन पर दूसरी टीका आचार्य नेमिचन्द्र की सुखबोधावृत्ति है । नेमिचन्द्र का अपरनाम देवेन्द्रगणी भी था । प्रस्तुत टीका में उन्होंने अनेक प्राकृतिक आख्यान भी उट्टंकित किये हैं । उनकी शैली पर आचार्य हरिभद्र और वादीवैताल शान्तिसूरि का अधिक प्रभाव है। शैली की सरलता व सरसता के कारण उसका नाम सुखबोधा रखा गया है। वृत्ति में सर्वप्रथम तीर्थंकर, सिद्ध, साधु, श्रुत, देवता को नमस्कार किया गया है । वृत्तिकार ने वृत्ति - निर्माण का लक्ष्य स्पष्ट करते हुए लिखा है कि शान्ताचार्य की वृत्ति गम्भीर और बहुत अर्थ वाली है । ग्रन्थ के अन्त में स्वयं को गच्छ, गुरुभ्राता, वृत्ति-रचना के स्थान, समय आदि का निर्देश किया है। आचार्य नेमिचन्द्र बृहद्गच्छीय उद्योतनाचार्य के प्रशिष्य उपाध्याय आम्रदेव के शिष्य थे। उनके गुरुभ्राता का नाम मुनिचन्द्रसूरि था, जिनकी प्रबल प्रेरणा से ही उन्होंने बारह हजार श्लोक प्रमाण इस वृत्ति की रचना की । विक्रम संवत् ११२९ में वृत्ति अणहिलपाटन में पूर्ण ४ हुई। , उसके पश्चात् उत्तराध्ययन पर अन्य अनेक विज्ञ मुनि तथा अन्य अनेक विभिन्न सन्तों व आचार्यों ने वृत्तियाँ लिखी हैं। हम यहाँ संक्षेप में सूचन कर रहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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