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* ९८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
दशवैकालिक और उत्तराध्ययनचूर्णि ये दोनों एक ही आचार्य की कृतियाँ हैं, क्योंकि स्वयं आचार्य ने चूर्णि में लिखा है-- “मैं प्रकीर्ण तप का वर्णन दशवैकालिकचूर्णि में कर चुका हूँ।" इससे स्पष्ट है कि दशवैकालिकचूर्णि के पश्चात् ही उत्तराध्ययनचूर्णि की रचना हुई है।
उत्तराध्ययन की टीकाएँ शिष्यहितावृत्ति (पाइअ टीका)
नियुक्ति एवं भाष्य प्राकृत भाषा में थे। चूर्णि में प्रधान रूप से प्राकृत भाषा का गौण रूप से संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ। उसके बाद संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखी गईं। टीकाएँ संक्षिप्त और विस्तृत दोनों प्रकार की मिलती हैं। उत्तराध्ययन के टीकाकारों में सर्वप्रथम नाम वादीवैताल शान्तिसूरि का है। महाकवि धनपाल के आग्रह से शान्तिसूरि ने चौरासी वादियों को सभा में पराजित किया जिससे राजा भोज ने उन्हें ‘वादीवैताल' की उपाधि प्रदान की। उन्होंने महाकवि धनपाल की तिलक मंजरी का संशोधन किया था।
उत्तराध्ययन की टीका का नाम शिष्यहितावृत्ति है। इस टीका में प्राकृत की कथाओं व उद्धरणों की बहुलता होने के कारण इसका दूसरा नाम पाइअ टीका भी है। यह टीका मूलसूत्र और नियुक्ति इन दोनों पर है। टीका की भाषा सरस और मधुर है। विषय की पुष्टि के लिए भाष्य-गाथाएँ भी दी गई हैं और साथ ही पाठान्तर भी। प्रथम अध्ययन की व्याख्या में नय का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। नय की संख्या पर चिन्तन करते हुए लिखा है-पूर्वविदों ने संकलनयसंग्राही सात सौ नयों का विधान किया है। उस समय ‘सप्तशत शतार नयचक्र' विद्यमान था। तत्संग्राही विधि आदि का निरूपण करने वाला बारह प्रकार के नयों का 'द्वादशारनयचक्र' भी विद्यमान था और वह वर्तमान में भी उपलब्ध है।
द्वितीय अध्ययन में वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद ने ईश्वर की जो कल्पना की और वेदों को अपौरुषेय कहा, उस कल्पना को मिथ्या बताकर तार्किक दृष्टि से उसका समाधान किया। अचेल परीषह पर विवेचन करते हुए लिखा-वस्त्र धर्म-साधना में एकान्त रूप से बाधक नहीं है। धर्म का मूल रूप से बाधक तत्त्व कषाय है। कषाययुक्त धारण किया गया वस्त्र पात्रादि की तरह बाधक है। जो धार्मिक साधना के लिए वस्त्रों को धारण करता है, वह साधक है।
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