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________________ ४६ श्रीमदूराजचन्द्रजैनशानमालायाम् । नात् । तथा हि-यदा जीवः पायगुणत्वेन द्रव्यमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा नोत्पद्यते न विनश्यति न च क्रमवृत्त्यावर्तमानत्वात् सत्पर्यायजातमुच्छिनत्ति, नासदुत्पादयति । यदा तु द्रव्यगुणत्वेन पर्यायमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा प्रादुर्भवति विनश्यति सत्पर्यायजातमतिवाहितस्वकालमुच्छिनत्ति, असदुपस्थितं स्वकालमुत्पादयति चेति । स खल्वयं प्रसादोऽनेकान्तवादस्य यदीदृशोऽपि विरोधो न विरोधः॥२१॥ इति षड्व्य सामान्यप्ररूपणा । सहिदो कुमतिज्ञानादिविभावगुणनरनारकादिविभावपर्यायसहितः । न च केवलज्ञानादिस्वभावगुणसिद्धरूपशुद्धपर्यायसहितः । कस्मादिति चेत् । तत्र केवलज्ञानाद्यवस्थायां नरनारकादिविभावपर्यायाणामसंभवात् अगुरुलघुकगुणषढानिवृद्धिस्वभावपर्यायरूपेण पुनस्तत्रापि भावाभावादिकं, करोति नास्ति विरोधः । किं कुर्वन् सन् मनुष्यभावादिकं करोति । संसरमाणो संसरन् परिभ्रमन् सन् । क । द्रव्यक्षेत्रकालभवभावस्वरूपपञ्चप्रकारसंसारे। अत्र सूत्रे विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे साक्षादुपादेयभूते शुद्धजीवास्तिकाये यत्सम्यकद्धानज्ञानानुचरणं तदूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकं परमसामायिकं तदलभमानो दृष्टश्रुतानुभूताहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञादिसमस्तपरभावपरिणाममूर्छितो मोहित आसक्तः सन् नरनारकादिविभावपर्यायरूपेण भावमुत्पादं करोति तथैव चाभावं व्ययं करोति येन कारणेन जीवस्तस्मात् तत्रैव शुद्धात्मद्रव्ये सम्यक् श्रद्धानं ज्ञानं तथाभेदोंसे चार प्रकार पर्यायका अस्तित्व कहा गया है । जहाँ देवादिपर्यायोंकी उत्पत्तिरूप होकर परिणमता है, वहाँ तो भावका कर्तृत्व कहा जाता है। और जहाँ मनुष्यादि पर्यायके नाशरूप परिणमता है, वहाँ अभावका कर्तृत्व कहा जाता है । और जहां विद्यमान देवादिक पर्यायके नाशकी प्रारंभदशारूप होकर परिणमता है, वहां भावअभावका कर्तृत्व है । और जहाँ नहीं है मनुष्यादि पर्याय उसकी प्रारंभदशारूप होकर परिणमता है, वहां अभाव भावका कर्तृत्व कहा जाता है। यह चार प्रकार पर्यायकी विवक्षासे अखंडित व्याख्यान जानना । द्रव्यपर्यायकी मुख्यता और गौणतासे द्रव्योंमें भेद होता है, वह भेद दिखाया जाता है । जब जीवका कथन पर्यायकी गौणता और द्रव्यकी मुख्यतासे किया जाता है तो ये पूर्वोक्त चारप्रकार कर्तृत्व नहीं संभवता । और जब द्रव्यकी गौणता और पर्यायकी मुख्यतासे जीवका कथन किया जाता है तो ये पूर्वोक्त चारप्रकारके पर्यायका कर्तृत्व अविरुद्ध संभवता है। इस प्रकार यह मुख्य गौण भेदके कारण व्याख्यान भगवत्सर्वज्ञप्रणीत अनेकांतवादमें विरोध भावको नहीं धरता है । स्यात्पदसे अविरुद्ध साधता है। जैसे द्रव्यकी अशुद्धपर्यायके कथनसे सिद्धि की, उसीप्रकार आगम प्रमाणसे शुद्ध पर्यायोंकी भी विवक्षा जाननी । अन्य द्रव्योंका भी सिद्धांतानुसार गुणपर्यायका कथन साध लेना । यह सामान्य स्वरूप षड्द्रव्योंका व्याख्यान जानना ॥२१॥ १ गौणत्वेन. २ उच्छेदयति. ३ असदू पेणावस्थितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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