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पचास्तिकायः ।
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स्वकारणनिर्वृत्तौ निर्वृतेऽभूतपूर्व एव चान्यस्मिन्नुत्पन्ने नासदुत्पत्तिः । तथा दीर्घकालान्वयिनि ज्ञानावरणादिकर्म सामान्योदयनिर्वृत्तिसंसारित्वपर्याये भव्यस्य स्वकारणनिर्वृत्तौ निर्वृत्ते समुत्पन्ने चाभूतपूर्वे सिद्धत्वपर्याये नासदुत्पत्तिरिति । किं च यथा द्राघीयसि वेणु - दण्डे व्यवहिताव्यवहित विचित्र किर्मीरताखचिताधस्तनार्द्धभागे एकान्तव्यवहितसुविशुद्धोभागेऽवतारिता दृष्टिः समन्ततो विचित्र चित्रकिर्मीरताव्याप्तिं पश्यन्ती समनुमिनोति तस्य सर्वत्राविशुद्धत्वम् । तथा क्वचिदपि जीवद्रव्ये व्यवहिताव्यवहितज्ञानावरणादिकर्म
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तेषां ज्ञानावरणादिभावानां द्रव्यभावकर्मरूपपर्यायाणामभावं विनाशं कृत्वा पर्यायार्थिकनयेन भूतपूर्वसिद्धो भवति द्रव्यार्थिकनयेन पूर्वमेव सिद्धरूप इति वार्तिकं । तथाहि - यथैको महान वेणुcus : पूर्वार्धभागे विचित्रचित्रेण खचितः शबलितो मिश्रितः तिष्ठति तस्मादूर्वार्द्धभागे विचित्रचित्राभावाच्छुद्ध एव तिष्ठति तत्र यदा कोपि देवदत्तो दृष्टयावलोकनं करोति तदा भ्रान्तिज्ञानवशेन विचित्रचित्रवशादशुद्धत्वं ज्ञात्वा तस्मादुत्तरार्धभागेप्यशुद्धत्वं मन्यते तथायं जीवः संसारावस्थायां मिथ्यात्वरागादिविभावपरिणामवशेन व्यवहारेणाशुद्धस्तिष्ठति शुद्धद्रव्यार्थिकनयेनाभ्यन्तरे केवलपर्यायार्थिकनयकी विवक्षा से जीवद्रव्य जब जैसी देवादिकपर्यायको धारण करता है तब वैसा ही होकर परिणमता हुआ उत्पाद नाश अवस्थाको धरता है । इन ही दोनों नयोंका विलास दिखाया जाता है । अनादि कालसे लेकर संसारी जीवके ज्ञानावरणादि कर्मों के संबंधोंसे संसारी पर्याय है । वहाँ भव्य जीवको काललब्धिसे सम्यग्दर्शनादि मोक्षकी सामग्री पानेसे सिद्ध पर्याय यद्यपि होती है तथापि द्रव्यार्थिकयनकी अपेक्षा सिद्धपर्याय नूतन ( नया ) हुआ नहीं कहा जा सकता । अनादिनिधन ज्योंका त्यों ही है । कैसे ? जैसे कि, अपनी थोड़ी स्थिति लिये नामकर्मके उदयसे निर्मार्पित देवादिक पर्याय होते हैं, उनमें कोई एक पर्याय होनेसे नवीन पर्याय हुआ नहीं कहा जाता । क्योंकि संसारीके अशुद्ध पर्यायोंकी संतान होती ही है। जो पहिले न होती तो नवीन पर्याय उत्पन्न कहा जाता । इस कारण जब तक जीव संसारमें है, तबतक पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे नया संसारपर्याय उत्पन्न हुआ नहीं कहा जाता, पहिला ही है । उसी प्रकार द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा नवीन सिद्धपर्याय उत्पन्न हुआ नहीं कहा जाता, किन्तु शाश्वत रूपसे सदा जीवद्रव्यमें आत्मीक भावरूप सिद्धपर्याय विद्यमान ही है । संसारपर्यायको नष्ट करके सिद्धपर्याय नवीन उत्पन्न हुआ, ऐसा जो कथन है सो पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे है । जैसे एक बड़ा बांस है,
अशुद्ध कारण से जीव के उत्पन्न
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१ अविद्यमानोत्पत्तिनं. २ बहुकालानुवर्तिनि ३ अतिक्रान्ते ४ विनाशं गते सति ५ पूर्वमनुत्पन ६ आच्छादितानाच्छादित. ७ आरोपिता ८ अनुमानं करोति संकल्पयति प्रमाणयति वा ९ | वेणुदण्डस्य. १० सर्वस्मिन्न वषोभागे ११ प्रलिप्तत्वम् ।
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