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[७] १९४१ की लिखी हुई वीरमगांव निवासी दोसी बेलसी वीरचंदसे प्राप्त हुई। यद्यपि लेखक महाशयोंके प्रमादसे तीनों ही प्रतियां अशुद्ध है, परन्तु पहली प्रति दूसरी तीसरी से बहुत ही शुद्ध है।
यद्यपि पंडित हेमराजजीकृत यह वचनिका प्राचीन ब्रजभाषापद्धतिके अनुसार बहुतही उत्तम और बालबोध है परन्तु आजकलके नवीन हिन्दी भाषाके संस्कारक महाशयोंकी दृष्टिमें यह ब्रजभाषा समीचीन नहीं समझी जाती है, तथा सर्वदेशीय भी नहीं समझी जाती, इसकारण मैंने पंडित हेमराजकृत भाषानुवादके अनुसारही नई सरल हिन्दी भाषामें अविकल अनुवाद किया है। अर्थात् संस्कृतके प्रत्येक पदके पीछे 'कहिये, कहिये' शब्दको उठाने और संस्कृत पदोंको कोष्टकमें रखनेके अतिरिक्त अपनी ओरसे अर्थमें कुछ भी न्यूनाधिक नहीं किया है । किन्तु जहाँ जहाँ मूलपाठ और अर्थमें लेखकोंकी मूलसे कुछ छूट गया है तथा अन्यका अन्य हो गया है, उसको मैंने संस्कृत टीकाके अनुसार शुद्ध करके लिखा है। पंचास्तिकायका विषय आध्यात्मिक होनेके कारण कठिन है, इसलिये, तथा प्रतियोंकी अशुद्धताके कारण प्रमादवशतः मुझ सरीखे अल्पज्ञ द्वारा अशुद्धियां रह जाना सम्भव है, इस कारण विद्वज्जनोंसे प्रार्थना है कि वे उन्हें शुद्ध करके पढ़ें।
स्वर्गीय तत्वज्ञानी श्रीमान् रायचन्द्रजी द्वारा स्थापित श्रीपरमश्रुतप्रभावकमण्डलको ओरसे इस प्रन्थका जीर्णोद्धार हुवा है, अतएव उक्त मंडलके उत्साही सभासद और प्रबन्धकर्ताओंको इस प्रस्तावनाके अन्तमें कोटिशः धन्यवाद दिये जाते हैं, और श्रीजीसे प्रार्थना की जाती है कि वीतरागदेवप्रणीत उच्च श्रेणीके तत्त्वज्ञानका इच्छित प्रसार करने में उक्त मण्डल कृतकार्य होनेको शक्तिवान् होवे।
श्रीमान् शेठ माणिकचन्द पानाचन्दजी जौहरीने अपने भतीजे स्वर्गीय सेठ प्रेमचन्द मोतीचन्दनी के स्मरणार्थ इस प्रन्यके प्रकाशनमें ३५०) 6० की सहायता देकर विशेष उत्तेजना दी है, अतएव मंडल की ओरसे उक्त विद्योत्साही शेठजी भी विशेष धन्यवादके पात्र हैं।
मुम्बई, ता० १०-१२-१९०४ ई० }
जैनसमाजका दास, पन्नालाल बाकलीवाल.
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