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________________ [८] द्वितीयावृत्तिकी सूचना प्रिय विज्ञपाठकोंको विदित हो कि इसकी पहली आवृत्तिमें केवल दो टीकायें थीं। उनमेंसे भी श्रीअमृतचन्द्रस्वामीकी टीकाके सूक्ष्म अक्षर थे। अबकी बार श्रीप्रवचनसार की तरह इसमें भी पूर्वटीकाके स्थूल अक्षर तथा श्रीजयसेनाचार्यकी तात्पर्यवृत्ति नामकी संस्कृत टीका बीचमें लगा दी गई है जिससे कि पाठकोंको शब्दार्थ समझनेमें सरलता मालूम होवे । दूसरी बात यह है कि इसमें विषयानुक्रमणिका तथा गाथानुक्रमणिका इसप्रकार समयके अनुकूल दो सूची भी लगा दी गई हैं और जो पहले संस्करणमें त्रुटियां रह गई थीं वे भी यथाशक्ति सुधार दी गई हैं। अब भी बुद्धि के क्षयोपशमकी न्यूनतासे त्रुटियां रह गई हों तो उनको पाठकगण मेरे ऊपर क्षमा करके शुद्ध करते हुए पढ़ें। क्योंकि ऐसे महान शास्त्रमें अशुद्धियोंका रह जाना सम्भव है। इस तरह क्षमाप्रार्थना करता हुआ इस सूचनाको समाप्त करता हूँ। अलं विज्ञेषु । स० हु. दि० जनमहाविद्यालय ) नशियां इन्दौर श्रावण कृष्णा १३ वी०नि० सं० २४४१ ) जैनसमाजका सेवक मनोहरलाल पाढम ( मैनपुरी) निवासी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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