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________________ [६] और बलनंदिके शिष्य पद्मनंदी हैं सो विजयगुरुके निकट वारानगरके शक्तिभूपाल के समयमें हुये हैं। दूसरे-पद्मनंदिने पंचविंशतिका, चरणसारप्राकृत, धर्मरसायन प्राकृत, ये तीन प्रन्थ बनाये हैं इनका समयादि कुछ प्राप्त नहीं हुआ। तीसरे पद्मनंदी कर्णखेट प्राममें हुये हैं जिन्होंने सुगन्धदशम्युद्यापनादि ग्रन्थ बनाये हैं। चौथे-पद्मनंदी कुण्डलपुर निवासी हुये हैं जिन्होंने चूलिका सिद्धान्तकी व्याख्या वृत्ति नामक १२००० श्लोकोंमें बनाई है पांचवें-पद्मनंदी विक्रम सं० १३९५ में हुये हैं। छठे पद्मनंदी भट्टारक नामसे प्रसिद्ध हुये हैं जिनकी बनाई रत्नत्रयपूजा देवपूजा पूनाकी दक्षिणकालेज लाइब्रेरीमें प्राप्त हुई है। सातवे-पद्मनंदी विक्रम संवत १३६२ में भट्टारक नामसे हुये हैं इनकी लघुपद्मनंदी संज्ञा भी है । इनके बनाये हुये यत्याचार, आराधनासंग्रह, परमात्मा प्रकाशकी टीका, निघंट वैद्यक, श्रावकाचार, कलिकुण्डपार्श्वनाथविधान, अनन्तकथा, रत्नत्रयकथा आदि ग्रन्थ हैं। इस प्रकार एक नामके धारी अनेक आचार्य हो गये हैं । यह सब नाम हमने पूना लाइब्रेरीकी रिपोर्टो परसे संग्रहीत किये हैं। इनमें तथ्य कितना है सो हम नहीं कह सकते और न इनका पृथक पृथक समय निर्णय करने का ही कोई साधन है। किन्तु इस पंचास्तिकायसमयप्राभृतके कर्ता कुन्दकुन्दस्वामी जगतमें प्रसिद्ध हैं। इनके बनाये समस्त ग्रन्थोंको दिगम्बरीय श्वेताम्बरीय दोनोंही पक्षके विद्वद्गण प्रमाणभूत मानकर परम आदरकी दृष्टिसे इनका स्वाध्याय अवलोकनादि करते रहते हैं अर्थाद ऐसा कोई भी जैनी नहीं होगा जो इनके वचनोंमें अश्रद्धा करता हो । इन आचार्य महाराजके बनाये हुये प्रन्थोंके पूर्ण ज्ञाता पुरुषार्थसिद्धयुपाय तत्त्वसारादि ग्रन्थोंके कर्ता अमृतचन्द्रसूरि विक्रम संवत ९६२ में नंदिसंघके पट्टपर हो गये हैं । इन्होंने ही समयप्राभृत ( समयसारनाटक ) पंचास्तिकायसमयसार प्रवचनसारादि ग्रन्थोंपर परमोत्तम टीकायें रची हैं । इनके सिवाय इस पंचास्तिकाय समयसार पर एक टोका देव जितनामा आचार्यने बनाई है तीसरी टीका विक्रम संवत् १३१६ में प्रसिद्ध ग्रन्थकार वा टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्यने बनाई है चौथी टीका सं० १७७५ में भट्टारक ज्ञानचन्द्रजीने बनाई है और पांचवीं टीका बालचन्द्रमुनिने कर्णाटक भाषामें बनाई है। अन्वेषण करने से इस ग्रन्थ पर और भी अनेक टीकायें प्राप्त होना सम्भव है। इनके पश्चात् भाषाकारोंका नम्बर है सो इसका एक भाषानुवाद तो वि० सं० १७१६ में पंडित राजमल्लजीने किया है । दूसरा भाषानुवाद वि० सं० १७०० के लगभग पंडित हेमराजने ३५०० श्लोकोंमें किया है। तीसरा भाषापद्यानुवाद वि० सं० १७१८ में जहानाबाद निवासी कवि हीराचन्दजीने २२०० श्लोकोंमें बनाया है । चौथा भाषापद्यानुवाद वि० सं० १८९१ में विधिचन्द जी ने १४०० श्लोकोंमें किया है। हमको उक्त प्रन्थोंमेंसे १ प्रति अमृतचन्द्रजी सूरिकृत संस्कृत टीकाकी पदच्छेद छाया व टिप्पणी सहित प्राप्त हुई और तीन प्रति पंडित हेमराजजोकृत ब्रजभाषानुवाद की प्राप्त हुई। जिनमेंसे १ प्रति वि० सं० १७४१ की लिखी हुई देवरीनिवासी भाई नाथूराम प्रेमीसे प्राप्त हुई । दूसरी प्रति विना सं० मिती की लिखी खुरई निवासी पंडित खेमचन्द्रजी अध्यापक जैनपाठशाला ईडरसे प्राप्त हुई । तीसरी प्रति सं० १ यह बात बड़ौदा प्रान्तके करमसद ग्रामके पुस्तकालयस्थ जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिको अंतको प्रशस्ति में लिखी है। २ पिटसंन साहबकी रिपोर्ट चौथी नं० १४४२ का ग्रंथ । ३ लाहोर निवासी बाबू ज्ञानचन्द्र जी ने बुधजन सतसई और बुधजनविलास बादि के कर्ता पं० बुध अनजी यही थे । ऐसा प्रगट किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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