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इस प्रकार वर्धमान स्वामी के पश्चात् ६८३ वर्षपर्यंत अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही। इनके पश्चाद अंगपाठी कोई भी नहीं हुये, किन्तु वर्धमानस्वामीके मोक्ष पधारनेके ६८३ वर्षके पश्चात दूसरे भद्रवाहू स्वामी अष्टांग निमित्तज्ञान ( ज्योतिष ) के धारक हुये । इनके समयमें १२ वर्षका दुर्भिक्ष पड़नेसे इनके संघमेंसे अनेक मुनि शिथिलाचारी हो गये और स्वच्छंद प्रवृत्ति होनेसे जैनमार्ग भ्रष्ट होने लगा, तब भद्रबाहूके शिष्योंमेंसे एक धरसेन' नामके मुनि हुये जिनको अप्रायणीपूर्वमें पंचमवस्तुके महाप्रकृति नाम चौथे प्राभृतका ज्ञान था, सो इन्होंने अपने शिष्य भूतबली और पुष्पदन्त इन दोनों मुनियोंको पढ़ाया। इन्होंने षट्खंड नामकी सूत्ररचना कर पुस्तकमें लिखा । फिर उन षटखंडसूत्रोंको अन्यान्य आचार्योंने पढ़कर उनके अनुसार विस्तारसे धवल महाधवल जयधवलादि टीकापन्थ ( सिद्धान्तप्रन्ध ) रचे । उन सिद्धान्तग्रन्थोंको नेमिचन्द्र सैद्धान्तिकदेवने पढ़कर लब्धिसार, क्षपणासार, गोमट्टसारादि प्रन्थोंकी रचना की। सो षटखंड सूत्रसे लगाय गोमट्टसार पर्यन्तके ग्रन्थसमूहको प्रथमश्रुतस्कंध वा सिद्धान्तग्रन्थ कहते हैं। इन सबमें जीव और कर्मके संयोगसे जो संसार पर्यायें होती हैं उनका विस्तारसे स्वरूप दिखाया गया है। अर्थात् भव्य जीवोंके हितार्थ गुणस्थान मार्गणाओंका वर्णन पर्यायार्थिक नयकी प्रधानतासे समस्त कथन किया है। पर्यायाधिक नयको अनेकान्त शैलीसे अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय तथा आध्यात्मिक दृष्टिसे अशुद्ध निश्चयनय तथा व्यवहारनय भी कहते हैं।
उक्त धरसेनाचार्यके समयमें ही एक गुणधर नामा मुनि हुये । उनको ज्ञानप्रवादपूर्वके दशम वस्तुमें तृतीय प्राभृतका ज्ञान था। उनसे नागहस्त नामा मुनिने उस प्रामृतको पढ़ा और इन दोनों मुनियों से फिर यतिनायक नामा मुनिने उक्त प्राभृतको पढकर उसकी ६००० चूर्णिकारूप सूत्र रचे, उन सूत्रोंपर समुद्धरण मुनिने १२००० श्लोकोंमें एक विस्तृत टीका रची। सो इस ग्रन्थको श्रीकुन्दकुन्दस्वामी अपने गुरु जिनचन्द्राचार्यसे पढकर पूर्ण रहस्यके ज्ञाता हुए और उसही ग्रन्थके अनुसार कुन्दकुन्दस्वामीने नाटक समयसार पंचास्तिकायसमयसार प्रवचनसारादि ग्रन्थ' रचे। ये सब ग्रन्थ द्वितीय श्रुतस्कंधके नामसे प्रसिद्ध हैं । इन सबमें ज्ञानको प्रधान करके शुद्ध द्रव्यार्थिकनयका कथन किया गया है अर्थात् अध्यात्मरीतिसे इन ग्रन्थों में आत्माका ही अधिकार है इसकारण इस शुद्धद्रव्यार्थिक नयका शुद्ध निश्चयनय वा परमार्थ भी नाम है । इन ग्रन्थों में पर्यायार्थिक नयों की गौणता की गई है। क्योंकि इस जीवकी जबतक पर्यायबुद्धि रहती है तबतक संसार ही हैं। और जब शुद्धनयका उपदेश श्रवण करनेसे द्रव्यबुद्धि होकर निज आत्माको अनादि अनन्त एक और परद्रव्य तथा परभावोंके निमित्तसे हुये जो निजभाव तिनसे भिन्न आपको जानकर अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभवकर शुद्धोपयोगमें लीन हो तबही कर्मोंका अभावकर यह जीव मोक्षपदको प्राप्त होता है ।
पट्टावलियोंके अनुसार ये कुन्दकुन्दस्वामी नन्दिसंघके आचार्यों में विक्रम संवत् ४९ में हुए हैं तथा पद्मनंदी एलाचार्य गृध्रपिच्छ और वक्रग्रीव ये ४ नाम भी इनहींके प्रसिद्ध किये गये हैं। यद्यपि ये नाम इनहीं के हों तो कोई आश्चर्य नहीं, परन्तु पद्मनंदी आचार्यके बनाये हुये जगत्प्रसिद्ध पद्मनंदिपंचविंशतिका, व जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थ भी इनके बनाये हुये हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि पद्मनंदी नामके आचार्य कई हो गये हैं । जैसे एक तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिके कर्ता पद्मनंदि हैं जो कि वीरनंदिके शिष्य बलनंदो १ इनका बनाया हुआ एक अनेकार्य कोश ईडरक भण्डारमें प्राप्त हुआ है। २ इन्होंने ८४ पाहुड ( प्राभृत ) भी रचे हैं जिनमें से षट्पाहुड तो इप समय प्राप्त हैं ।
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