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________________ पञ्चास्तिकायः । पर्यायेषु विद्यमानोपि मनुष्यादिपर्यायरूपेण देवादिपर्यायेषु नास्तीत्यविद्यमानोपि भण्यते । स एव नित्यः स एवानित्यः कथं घटत इति चेत् । यथैकस्य देवदत्तस्य पुत्रविवक्षाकाले पितृविवक्षा गोणा, पितृविवक्षाकाले पुत्रविवक्षा गौणा, तथैकस्य जीवस्य जीवद्रव्यस्य वा द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वविवक्षाकाले पर्यायरूपेणानित्यत्वं गौणं, पर्यायरूपेणानित्यत्वविवक्षाकाले द्रव्यरूपेण नित्यत्वं गौणं । कस्मात् ? विवक्षितो मुख्य इति वचनात् । अत्र पर्यायरूपेणानित्यत्वेपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेनाविमात्र ध्रौव्यस्वरूप दिखानेकेलिये ऐसे ही कथन किया जाता है । और जो उत्पादव्ययकी अपेक्षा जीवद्रव्यका कथन किया जाता है कि और ही उपजता है, और ही विनशता है, सो यह कथन गतिनामकर्मके उदय से जानना । कैसे कि, जैसे—मनुष्यपर्याय विनशती है, देवपर्याय उपजती है, सो कर्मजनित विभावपर्यायकी अपेक्षा यह कथन अविरुद्ध है; यह बात सिद्ध है । इस कारण यह बात सिद्ध हुई कि ध्रौव्यताकी अपेक्षासे तो वही जीव उपजता और वही जीव विनशता है और उत्पाद व्ययकी अपेक्षा अन्य जीव उपजता है और अन्य ही विनशता है। यह ही कथन दृष्टान्तसे विशेष दिखाया जाता है। जैसे-एक बड़ा बांस है, उसमें क्रमसे अनेक पौरी (गांठ ) हैं । उस बांसका जो विचार किया जाता है तो दो प्रकारके विचारसे उस बांसकी सिद्धि होती है । एक सामान्यरूप बांसका कथन है, एक उसमें विशेष रूप पौरियोंका कथन है । जब पौरियोंका कथन किया जाता है तो जो पौरी अपने परिणामको लिये हुये जितनी हैं, उतनी ही हैं। अन्य पौरीसे मिलती नहीं हैं। अपने अपने परिमाणको लिये हुये सब पौरी न्यारी न्यारी हैं। बांस सब पौरियोंमें एक ही है । जब बांसका विचार पौरियोंकी पृथकतासे किया जाय, तब बाँसका एक कथन नहीं आ सकता । जिस पौरीकी अपेक्षासे बाँस कहा जाता है सो उस ही पौरीका बाँस होता है। उसको और पौरीका बाँस नहीं कहा जाता । अन्य पौरीकी अपेक्षा. वही बाँस अन्य पौरीका कहा जाता है। इस प्रकार पौरियोंकी अपेक्षासे बांसकी अनेकता है और जो सामान्यरूप सब पौरियोंमें बांसका कथन न किया जाय तो एक बाँसका कथन कहा जाता है । इस कारण बांसकी अपेक्षा एक बाँस है । पौरियोंकी अपेक्षा एक बॉस नहीं है। इसी प्रकार त्रिकाल अविनाशी जीव द्रव्य एक है। उसमें क्रमवर्ती देवमनुष्यादि अनेक पर्याय हैं, सो वे पर्याय अपने अपने परिमाण लियेहुये हैं। किसी भी पर्यायसे कोई पर्याय मिलती नहीं है, सब न्यारी न्यारी हैं । जब पर्यायोंकी अपेक्षा जीवका विचार किया जाता है तो अविनाशी एक जीवका कथन आता नहीं । और जो पर्यायोंकी अपेक्षा नहीं ली जाय तो जीवद्रव्य त्रिकाल में अभेदस्वरूप एक ही कहा जाता है । इस कारण यह बात सिद्ध हुई कि-जीवद्रव्य निजभाव से तो सदा टंकोत्कीर्ण एकस्वरूप नित्य है और पर्यायकी अपेक्षा नित्य नहीं है। पर्यायोंकी अनेकतासे अनेक होता है अन्य पर्यायकी अपेक्षा अन्य भी कहा जाता है। इस कारण द्रव्यके कथनकी ६ पञ्चा० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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