SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पश्चास्तिकायः । सामान्यविशेषप्ररूपणप्रवणनयद्वयायत्तत्वात् तद्देशनायाः ॥८॥ अत्र सत्ताद्रव्ययोरर्थान्तरत्वं प्रत्याख्यातम् - दवियदि गच्छदि ताई ताई सम्भावपजयाई जं । दवियं तं भण्णते अणण्णभूदं तु सत्तादो ॥९॥ द्रवति गच्छति तांस्तान् सद्भावपर्यायान् यत् । द्रव्यं तत् भणन्ति अनन्यभूतं तु सत्तातः ॥२॥ द्रवति गच्छति सामान्यरूपेण स्वरूपेण व्याप्नोति तांस्तान् क्रमभुवः सहभुवश्व सद्भावपर्यायान् स्वभावविशेषानित्यानुगतार्थया निरुक्त्या द्रव्यं व्याख्यातम् । द्रव्यं जीवास्तिकायसंज्ञस्य शुद्धजीवद्रव्यस्य या सत्ता सैवोपादेया भवतीति भावार्थः ।।८।। इति प्रथमस्थले सत्तालक्षणमुख्यत्वेन व्याख्यानेन गाथा गता। अथ सत्ताद्रव्ययोरभिन्नत्वं प्रत्याख्याति;दवियदि द्रवति । द्रवति कोथः । गच्छदि गच्छति । क। वर्तमानकाले । द्रोष्यति गमिध्यति भाविकाले। अदुद्रुवत् गतं भूतकाले । कान् । ताई ताई सम्भावपञ्जयाई तास्तान सद्भावपर्यायान् स्वकीयपर्यायान जं यत् कते दवियत्तं भण्णंति हि तद्रव्यं भणन्ति सर्वज्ञा हि स्फुटं । अथवा द्रवति स्वभावपर्यायान् गच्छति विभावपर्यायान् । इत्थंभूतं द्रव्यं किं सत्ताया भिन्नं भविष्यति ? नैवं। अणण्णभूदं तु सत्तादो अनन्यभूतमभिन्नं । कस्याः । सत्तायाः निश्वऐसी है, और जो वह महासत्ता सकलस्वरूप है, सो ही एकरूप है, क्योंकि अपने अपने पदार्थों में निश्चित एक ही स्वरूप है। इस कारण सकळ स्वरूप सत्ताको एकरूप कहा जाता है। और जो वह महासत्ता अनंतपायात्मक है, उसीको एक पर्यायस्वरूप कहते हैं। क्योंकि अपने अपने पर्यायों की अपेक्षासे द्रव्योंकी अनन्त सत्ता हैं । एक द्रव्यके निश्चित पर्यायकी अपेक्षासे एक पर्यायरूप कहा जाता है, इस कारण अनन्तपर्यायस्वरूप सत्ताको एक पर्यायस्वरूप कहते हैं। यह जो सत्ता का स्वरूप कहा, तिसमें कुछ विरोध नहीं है. क्योंकि भगवानका उपदेश सामान्यविशेषरूप दो नयोंके आधीन है, इस कारण महासत्ता और अवान्तर सत्ताओं में कोई विरोध नहीं है ।।८। आगे सत्ता और द्रव्यमें अभेद दिखाते हैं,-[ यत् ] जो सत्तामात्र वस्तु [ तान् तान् ] उन उन अपने [ सद्भावपर्यायान् ] गुणपर्याय स्वभावोंको [ द्रवति गच्छति ] प्राप्त होती है अर्थात् एकताकर व्याप्त होती है [ तत् ] सो [ द्रव्यं ] द्रव्यनाम [ भणन्ति ] थाचार्यगण कहते हैं । अर्थात्-द्रव्य एसको कहते हैं कि जो अपने सामान्यस्वरूपकरके गुणपर्यायोंसे तन्मय होकर परिणमें । [तु ] फिर वह द्रव्य निश्चयसे [ स. तातः ] गुणपर्यायात्मक सत्तासे [ अनन्यभूतं ] जुदा नहीं है। भावार्थ-यद्यपि कथंचित्प्रकार लक्ष्यलक्षण भेदसे सत्तासे द्रव्यका भेद है तथापि मत्ता और द्रव्यका १ पत्र सत्तादेशनाया द्विनयाधीनत्वात् । २ प्रत्याख्यातं निराकृतं । "प्रत्याख्यातो निराकृतः" इति बचनात् । ३ स्वरूपभेदान् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy