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________________ पञ्चास्तिकायः । २४७ सुखेनैवावतरन्ति तीर्थ प्राथमिकाः। तथाहीदं श्रद्धेयमिदमश्रद्धेयमयं भद्धातेदं श्रद्धानमिदमभदानमिदं ज्ञेयमयं ज्ञातेदं ज्ञानमिदमज्ञानमिदं चरणीयमिदमचरणीयमिदमचरितमिदं चरणमिति कर्तव्याकर्तव्यकर्तृकर्मविभागावलोकनोलसितर्पशेलोत्साहाः । शनैः शनैर्मोहमलमु. न्मूलयन्तः । कदाचिदज्ञानान्मदप्रमादतंत्रतया शिथिलितात्माधिकारस्यात्मनो न्याय्यपथप्रवर्तनाय प्रयुक्तप्रचण्डदण्डनीतयः । पुनः पुनर्दोषानुसारेण दत्तप्रायश्चिताः सन्ततोद्युक्ताः सन्तोऽथ तस्यैवात्मनो भिन्नविषयश्रद्धानज्ञानचारित्रैरधिरोप्यमाणसंस्कारस्य भिन्नसाध्यसाधनमावस्य रजकशिलातलस्फाल्यमानविमलसलिलाप्लुतविहिताऽध्वपरिष्वङ्गमलिनवासस इव मनाङ्मनाग्विशुद्धिमधिगम्य निश्चयनयस्य मिन्नसाध्यसाधनभावभावाद्दर्शनज्ञानचारित्रसमाहिकांक्षाप्रभृतिसमस्तशुभाशुभविकल्पजालरूपकल्लोलमालाविराजितमनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसुखप्रतिपक्षमूताकुलत्वोत्पादकनानाप्रकारमानसदुःखरूपवडवानलशिखासंदीपिताभ्यंतरं च संसारसागरमुत्तीर्यानन्तज्ञानादिगुणलक्षणमोक्षं प्राप्नोतीति ॥ अथैवं पूर्वोक्तप्रकारेणास्य प्राभृतस्य शास्त्रस्य वीतरागत्वमेव तात्पर्य ज्ञातव्यं तच्च वीतरागत्वं निश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकरूपेण स्वरूप सब शास्त्रोंमें ही दिखाये गये हैं और शास्त्रोंमें ही निश्चय व्यवहाररूप मोक्षमार्ग भली प्रकार दिखाया गया है। और जिनशास्त्रों में वर्णन किये हुये मोक्षके कारण जो परम वीतराग भाव हैं, उनसे शान्तचित्त होता है । इस कारण उस परमागमका तात्पर्य वीतरागभाव ही जानो। यह वीतरागभाव व्यवहारनिश्चयनयके अविरोधसे जब भले प्रकार जाना जाता है तबही प्रगट होता है और वांछित सिद्धिका कारण होता है, अन्य प्रकारसे नहीं। आगे निश्चय और व्यवहारनयका अविरोध दिखाते हैं। जो जीव अनादि कालसे लेकर भेदभावसे वासितबुद्धि हैं, वे व्यवहार-नयावलंबी होकर भिन्न साध्यसाधनभावको अंगीकार करते हैं, तब सुखसे पारगामी होते हैं। प्रथम ही जो जीव ज्ञान अवस्थामें रहनेवाले हैं वे तीर्थ कहलाते हैं। तीर्थसाधनभाव जहां है तीर्थफल शुद्ध सिद्धअवस्था साध्यभाव है। तीर्थ क्या है, सो दिखाते हैं, जिन जीवोंके ऐसे विकल्प हो कि यह वस्तु श्रद्धा करने योग्य है, यह वस्तु श्रद्धा करने योग्य नहीं है, श्रद्धा करनेवाला पुरुष ऐसा है, यह श्रद्धान है, इसका नाम अश्रद्धान है, यह वस्तु जानने योग्य है. यह नहीं जानने योग्य है, यह स्वरूप ज्ञाताका है, यह ज्ञान है, यह अज्ञान है, यह आचरने योग्य है, यह वस्तु आचरने योग्य नहीं है, यह आचारमयी भाव हैं, यह आचरण करनेवाला है, यह चारित्र है, ऐसे अनेक प्रकारके करने न करनेके कर्ताकर्मके भेद उपजते हैं, उन विकल्पोंके होते हुये उन पुरुष तीर्थों को सुदृष्टिके बढ़ावसे वारंवार उन पूर्वोक्त गुणोंके देखनेसे प्रगट उल्लास लिये उत्साह बढता है । जैसे द्वितीयाके चंद्रमाकी कला बढ़ती जाती है वैसेही ज्ञानदर्शनचारित्ररूप अमृतचंद्रमाकी कलाओंका कर्त्तव्याकर्त्तव्य भेदोंसे उन जीवोंके बढ़वारी होती है। फिर उन ही जीवोंके शनैः शनैः ( धीरे धोरे ) मोहरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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