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श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् ।
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शास्त्र तात्पर्यभूताय वीतरागत्वायेति । द्विविधम् किल तात्पर्यं । सूत्रतात्पर्यं शास्त्रतात्पर्यचेति । तत्र सूत्रतात्पर्यं किल प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम् । शास्त्रतात्पर्यं त्विदं प्रतिपाद्यते । अस्य खलु पारमेश्वरस्य शास्त्रस्य सकल पुरुषार्थ सारभूतमोक्षतत्त्वप्रतिपत्तिहेतोः पञ्चास्तिकायपद्रव्य स्वरूपप्रतिपादनेनोपदर्शित समस्तवस्तुस्वभावस्य, नवपदार्थप्रपञ्चसूचना विष्कृतबन्धमोक्ष संबन्धिबन्ध मोक्षायतनबन्धमोक्षविकल्पस्य सम्यगावेदि तनिश्चय व्यवहाररूपमोक्षमार्गस्य साक्षान्मोक्षकारण भूतपर मवीतरागत्वविश्रान्तसमस्तहृदयस्य परमार्थतो वीतरागत्वमेव तात्पर्यमिति । तदिदं वीतरागत्वम् व्यवहारनिश्चयाविरोधेनैवानुगम्यमानं भवति समीहितसिद्धये न पुनरन्यथा । व्यवहारनयेन भिन्नसाध्यसाधनभावमवलम्ब्यानादि भेदवासितबुद्धयः त्केवलज्ञानाद्यनन्त गुणव्यक्तिरूपकार्यसमयसारशब्दाभिधान मोहाभिलाषी भव्योऽर्हदादिविषयेपि स्वसंवित्तिलक्षणरागं मा करोतु तेन निरुपराग चिनोतिर्भावेन वीतरागो भूत्वा अजरामरपदस्य विपरीतं जातिजरामरणादिरूपविविधजलचरा कीर्ण वीतरागपरमानन्दैकरूपसुख र सास्वादनतिबन्धकनारका दिदुःखरूपक्षारनीर पूर्ण रागादिविकल्परहितपरमसमाधिविनाश कपंचेन्द्रिय विषय
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जो साक्षात् मोक्षमार्गका कारण हो सो वीतरागभाव है, सो अरहन्तादिकमें जो भक्ति है या राग है वह स्वर्गलोकादिक के क्लेशकी प्राप्ति करके अन्तरंग में अतिशय दाहको उत्पन्न करता है । ये धर्मराग कैसे हैं ? जैसे चन्दनवृक्षमें लगी अग्नि पुरुषको जलाती है । यद्यपि चन्दन शोतल है, अभिके दाहको दूर करने वाला है, तथापि चंदनमें प्रविष्ट हुई अग्नि आतापको उपजाती है। इसीप्रकार धर्मराग भी कथंचिव दुःखका उत्पादक है । इस कारण धर्मराग भी हेय ( त्यागने योग्य ) जानो । जो कोई मोक्षका अभिलाषी महाजन है वह प्रथम ही विषयका त्यागी होवे । अत्यन्त वीतराग होकर संसारसमुद्रके पार जाये । जो संसारसमुद्र नानाप्रकार के सुखदुःखरूपी कल्लोलोंके द्वारा आकुल व्याकुल हैं, कर्मरूपी बाडवानिसे बहुतही भयका उत्पादक अति दुस्तर है, ऐसे संसारसे पार जाकर परममुक्त अवस्थारूप अमृतसमुद्रमें मग्न होकर तत्काल ही मोक्षपदको पाते हैं. बहुत विस्तार कहां तक किया जाय ? जो साक्षाद मोक्षमार्गका प्रधान कारण है, समस्त शास्त्रोंका तात्पर्य है ऐसा वीतरागभाव ही जयवन्त होओ। सिद्धान्तों में दो प्रकार का तात्पर्य दिखाया है । एक सूत्रतात्पर्य, एक शास्त्रतात्पर्य । जो परंपरा से सूत्ररूपसे चला आया हो सो तो सूत्रतात्पर्य है, और समस्त शास्त्रोंका तात्पर्य वीतरागभाव है । क्योंकि उस जिनेन्द्रप्रणीत शास्त्रकी उत्तमता यह है कि चार पुरुषार्थों मेंसे मोक्ष पुरुषार्थ प्रधान है । उस मोक्षकी सिद्धिका कारण एकमात्र वीतरागप्रणीत शास्त्र ही हैं, क्योंकि षड्द्रव्य पंचास्तिकाय स्वरूपके कथनसे जब यथार्थ वस्तुका स्वभाव दिखाया जाता है तब सहज tears पता है । यह सब कन शास्त्रमें ही है । नव पदार्थों के कथन से प्रगट किये हैं। बंध- मोक्षका सम्बन्ध पाकर बन्ध - मोक्ष के ठिकाने और बन्ध-मोक्ष के भेद,
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