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________________ २४८ श्रीमद्राजघन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ततत्त्वरूपे विश्रान्तसकलक्रियाकाण्ड ाडम्बरनिस्तरङ्गपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवत्यात्मनि विश्रान्तिमासूचयन्तः क्रमेण समुपजातसमरसीभावाः परमवीतरागभावमधिगम्य, साक्षान्मोक्षमनुभवन्तीति । अथ ये तु केवलव्यवहारावलम्बिनस्ते खलु भिन्नसाधनभावाऽवलोकनेनाऽनवरतं नितरां खिद्यमाना मुहुर्मुहुर्धर्मादिश्रद्धानरूपाध्यवसायानुस्यूतचेतसः, प्रभूतश्रुतसंस्काराधिरोपितविचित्र विकल्पजालकल्माषितचैतन्यवृत्तयः, समस्तयतिवृत्तसमुदायरूपतपःप्रवृत्तिरूपकर्मकाण्डोडमराचलिताः, कदाचित्किश्चिद्रोचमानाः, कदाचित्किञ्चिद्विकल्पयन्तः,कदाचित्किञ्चिदाचरन्तः,दर्शनाचरणाय कदाचित्प्रशाम्यन्तः.कदाचित्संविजमानाः, कदाचिदनुकम्प्यमानाः, कदाचिदास्तिक्यमुद्वहन्तः, शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सामूढदृष्टितानां परस्परसापेक्षाभ्यामेव भवति मुक्तिसिद्धये नच पुनर्निरपेक्षाभ्यामिति वार्तिकं । तद्यथा । ये केचन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयमोक्षमार्गनिरपेक्षं केवल. शुभानुष्ठानरूपं व्यवहारनयमेव मोक्षमार्ग मन्यन्ते तेन तु सुरलोकादिक्लेशपरंपरया संसारं महामल्लका मूल सत्तासे विनाश होता है। किस ही एक कालमें अज्ञानताके आवेशसे प्रमादकी आधीनतासे उनही जीवोंके आत्मधर्म की शिथिलता है । फिर आत्माको न्यायमार्गमें चलाने के लिये आपको प्रचण्ड दण्ड देते हैं । शास्त्रन्यायसे फिर ये ही जिनमार्गी वारंवार जैसा कुछ रत्नत्रयमें दोष लगा हो उसीप्रकार प्रायश्चित्त करते हैं । फिर निरन्तर उद्यमी रहकर अपनी आत्माको जो आत्मस्वरूपसे भिन्नस्वरूप श्रद्धानज्ञान चारित्ररूप व्यवहाररत्नत्रयसे शुद्धता करते हैं। जैसे मलीन वस्त्रको धोबी भिन्न साध्यसाधनभावसे शिलाके ऊपर साबुन आदि सामग्रियोंसे उज्वल करता है, वैसेही व्यवहारनयका अवलम्ब पाकर भिन्न साध्यसाधनभावके द्वारा गुणस्थान चढ़ने की परिपाटीके क्रमसे विशुद्धताको प्राप्त होता है । फिर उनही मोक्षमार्ग साधक जीवोंके निश्चयनयकी मुख्यतासे भेदस्वरूप परअवलंबी व्यवहारमयी भिन्न साध्यसाधनभावका अभाव है। इस कारण अपने दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूपमें सावधान होकर अन्तरंग गुप्त अवस्थाको धारण करता है । और जो समस्त बहिरंग योगोंसे उत्पन्न क्रियाकाण्डका आडम्बर है उनसे रहित निरंतर संकल्प विकल्पोंसे रहित परम चैतन्य भावोंके द्वारा सुन्दर परिपूर्ण आनंदवंत भगवान् परब्रह्म आत्मामें स्थिरताको करते हैं ऐसेही निश्चयावलम्बी जीव हैं। वे व्यवहारनयसे अविरोधी क्रमसे परम समरसीभावके भोक्ता होते हैं । तत्पश्चात् परम वीतरागपदको प्राप्त होकर साक्षाव मोक्षावस्थाके अनुभवी होते हैं । यह तो मोक्षमार्ग दिखाया । अब जो एकान्तवादी हैं, मोक्षमार्गसे पराङमुख हैं उनका स्वरूप दिखाया जाता है । जो जीव मात्र व्यवहारनयका ही अवलंबन करते हैं उन जीवोंके परद्रव्यरूप भिन्न साध्यसाधनभावकी दृष्टि है, स्वद्रव्यरूप निश्चयनयात्मक अभेद साध्यसाधनभाव नहीं वाग्यमानमः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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