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पचास्तिकायः ।
तिविधानाभिप्रायो यस्मिन्यावतिकाले विशिष्टभावना सौष्ठववशात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रः स्वभावभूतैः सममङ्गाङ्गिभावपरिणत्या तत्समाहितो भूत्वा त्यागोपादानविकल्पशून्यत्वाद्विभान्तभाव व्यापारः सुनिःप्रकम्पः अयमात्मावतिष्ठते । तस्मिन् तावति काले अयमेवात्मा जीवस्वभावनियतचरितत्वान्निश्चयेन मोक्षमार्ग इत्युच्यते । अतो निश्चयव्यवहार मोक्षमार्गयोः साध्यसाधनभावो नितरामुपपन्नः || १६१ ।।
अणं ण मुणदि न करोति किंचिदपि शब्दादात्मनोन्यत्र क्रोधादिकं न च मुचत्यात्माश्रितमनंतज्ञानादिगुणसमूहं सो मोक्खमग्गोत्ति स एवं गुणविशिष्टात्मा । कथंभूतो भणितः ? मोक्षमार्ग इति । तथाहि - निजशुद्धात्मरुचि परिच्छित्ति निश्चलानुभूतिरूपो निश्चयमोक्षमार्गस्तावत् तत्साधकं कथंचित्स्वसंवित्तिलक्षणा विद्यावासनाविलया दरत्नत्रयात्मकं व्यवहारमोक्षमार्गमनुप्रपन्नो गुणस्थानसोपानक्रमेण निजशुद्धात्म द्रव्यभावनोत्पन्न नित्यानंदैकलक्षण सुखामृतरसास्वादतृप्तिरूपपरम कलानुभवात् स्वशुद्धात्माश्रितनिश्चय दर्शनज्ञानचारित्रैरभेदेन परिणतो यदा भवति तदा निश्चयनयेन भिन्नसाध्यसाधनस्याभावादयमात्मैव मोक्षमार्ग इति । ततः स्थितं सुवर्णपाषाणवनिच
है [ न मुञ्चति ] और न आत्मीक स्वभावको छोड़ता है [ सः आत्मा ] वह आत्मा [ मोक्षमार्ग इति ] मोक्षका मार्गरूप ही है, इस प्रकार सर्वज्ञ वीतरागने कहा है । भावार्थ - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रसे आत्मीक स्वरूपमें सावधान होकर जब आत्मीक स्वभावमें ही निश्चित विचरण करता है तब इसके निश्चय - मोक्षमार्ग कहा जाता है । जो आपहीसे निश्चय - मोक्षमार्ग हो तो व्यवहार- साधन किसलिये कहा है ? ऐसी शंका होनेपर समाधान है कि यह आत्मा असभूतव्यवहार की विवक्षा से अनादि अविद्या से युक्त है । जब कालब्धि पानेसे उसका नाश होता है तब व्यवहार मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति नहीं है । मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र इस अज्ञान-त्रयके नाशका उपाय यथार्थ तत्वोंका श्रद्धान, द्वादशांगका ज्ञान, यथार्थ चारित्रका आचरण - इस सम्यक रत्नत्रय ग्रहण करनेका विचार होता है । इस विचारके होने पर जो अनादिका ग्रहण था उसका तो त्याग होता है और जिसका त्याग था उसका ग्रहण होता है । तत्पश्चात् कभी आचरण में दोष हो तो दंड - शोधनादिसे उसे दूर करते हैं । और जिस काल में विशेष शुद्धात्मतत्वका उदय होता है तब स्वाभाविक निश्चय दर्शन, ज्ञान, चारित्र - इनसे गुणगुणीके भावकी परिणति द्वारा अडोल ( अचल ) होता है । तब ग्रहण त्यजनकी बुद्धि मिट जाती है, परमशान्ति से विकल्परहित होता है उस समय अति निश्चल भावसे यह आत्मा स्वरूपगुप्त होता है । जिस समय यह आत्मा स्वरूपका आचरण करता है उस समय यह जीव निश्चयमोक्षमार्गी कहलाता है । इसी कारण निश्चय व्यवहाररूप मोक्षमार्गको साध्यसाधनभावकी सिद्धि होती है ।॥ १६९ ॥ अत्र आत्माके चारित्र, ज्ञान, दर्शनका
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