________________
२१८
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । वीर्यस्य शुद्धज्ञप्तिक्रियारूपेणान्तर्मुहूर्तमतिवाद्य युगपज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयेण कथश्चित् कूटस्थज्ञानतामवाप्य ज्ञप्तिक्रियारूपे क्रमप्रवृत्त्यभावाद् भावकर्म विनश्यति । ततः कर्माभावे स हि भगवान्सर्वज्ञः सर्वदर्शी व्युपरतेन्द्रियव्यापारोव्याबाधानन्तसुखश्च नित्यमेवावतिष्ठते । हत्येप भावकर्ममोक्षप्रकारः द्रव्यकर्ममोक्षहेतुः परमसंवरप्रकारश्च ॥१५० । १५१।।
द्रव्यकर्ममोक्षहेतुपरमनिर्जराकारणध्यानाख्यानमेतत् ;दंसणणाणसमग्गं झाणं णो अण्णदवसंजुत्तं । जायदि णिजरहेदू सभावमहिदम्स साधुम्म ॥१५२॥
रित्वेनानंतज्ञानादिस्वरूपोऽहमित्यादिभावनास्वरूपमात्माश्रितं धर्म्यध्यानं प्राप्य आगमकथितक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टयादिगुणस्थानचतुष्टयमध्ये क्वापि गुणस्थाने दर्शनमोहमयेण क्षायिकसम्यक्त्वं कृत्वा तदनंतरमपूर्वादिगुणस्थानेषु प्रकृतिपुरुषनिर्मलविवेकज्योतीरूपप्रथमशुक्लध्यानमनुभूय रागद्वेषरूपचारित्रमोहोदयाभावेन निर्विकारशुद्धात्मानुभूतिरूपं चारित्रमोहविध्वंसनसमर्थ वीतरागचारित्रं प्राप्य मोहक्षपणं कृत्वा मोहक्षयानंतरं क्षीणकषायगुणस्थानेंतर्मुहूर्तकालं स्थित्वा द्वितीयशुक्लध्यानेन ज्ञानदर्शनावरणान्तरायकर्मत्रयं युगपदंत्यसमये निर्मूल्य केवलज्ञानाद्यनंतचतुष्टयस्वरूपं भावमोक्ष प्राप्नोतीति भावार्थः ॥ १५० । १५१ ॥ एवं भावमोक्षस्वरूपकथनरूपेण गाथाद्वयं गतं । अथ वेदनीयादिशेषाघातिकर्मचतुष्टयविनाशरूपायाः सकलद्रव्यनिर्जरायाः कारणं ध्यानकारण है सो भावज्ञानी जीवके मोहरागद्वेषकी प्रवृत्तिसे कमी होता है, अतएव इस भेदविज्ञानीके आस्रवभावका निरोध होता है । जब इसके मोहकर्मका क्षय होता है तब इसके अत्यन्त निर्विकार वीतराग-चारित्र प्रगट होता है। अनादिकालसे आस्रव आवरण द्वारा अनन्त चैतन्यशक्ति इस आत्माकी मदित ( ढकीहई ) है. वही इस ज्ञानीके शुद्धक्षायोपशमिक निर्मोहज्ञान क्रियाके होते हए अन्तमुहर्तपर्यन्त रहती है। तत्पश्चात् एक ही समयमें ज्ञानावरण, दशनावरण, अन्तराय कर्मके क्षय होनेसे कथंचितप्रकार कूटस्थ अचल केवलज्ञान अवस्थाको प्राप्त होता है। उस समय ज्ञानक्रियाकी प्रवृत्ति क्रमसे नहीं होती क्योंकि भावकर्मका अभाव है । सो ऐसी अवस्थाके होनेसे वह भगवान् सर्वत्र सर्वदर्शी इन्द्रियव्यापाररहित अव्याबाध अनन्त सुखसंयुक्त सदाकाल स्थिरस्वभावसे स्वरूपगुप्त रहते हैं। यह भावकर्मसे मुक्तका स्वरूप दिखाया, और ये ही द्रव्यकर्मसे मुक्त होनेका कारण परम संवरका स्वरूप है। जब यह जीव केवलज्ञान दशाको प्राप्त होता है तब इसके चार अघातिया कर्म जली हुई रस्सी की तरह द्रव्यकर्म रहते हैं। उन द्रव्यकर्मों के नाशको अनन्त चतुष्टय परम संवर कहते हैं ।। १५० ॥ १५१ ॥ आगे द्रव्यकर्म मोक्षका कारण और परम निर्जराका कारण ध्यानका स्वरूप दिखाते हैं;-[ दर्शनज्ञानसमग्रं ]
१ निश्चलज्ञानत्वम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org